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श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध
वृत्तिकार ने पुरुष शब्द के दो अर्थ किए हैं-1-सामान्य जीव और 2-मनुष्य। इसकी निरुक्ति भी दो प्रकार की है। जब पुरुष शब्द की 'पुरिशयनादिति पुरुषः' यह निरुक्ति की जाती है तो इसका अर्थ होता है-शरीर में शयन करने से यह जीव पुरुष कहा जाता है। किन्तु जब इसकी यह निरुक्ति होती है कि "सुख-दुःखानां पूर्णः इति पुरुषः" तब इसका अर्थ होता है-“जो सुखों और दुखों से व्याप्त रहता है, वह पुरुष है"। इस तरह पुरुष शब्द से जीव एवं मनुष्य दोनों का बोध होता है।
प्रस्तुत सूत्र में “इमाओ दिसाओ" ऐसा कह कर पुनः जो “सव्वाओ दिसाओ" का उल्लेख किया है, उसका तात्पर्य इतना ही है कि प्रथम पाठ में पठित दिशा शब्द सामान्य रूप से पूर्व, पश्चिम आदि दिशाओं का परिबोधक है तथा दूसरे पाठ में व्यवहत दिशा शब्द, द्रव्य दिशा और भाव दिशा रूप इन सभी दिशाओं का परिचायक है।
“अणेगरूवाओ जोणीओ" इस पाठ में प्रयुक्त “जोणीओ” पद योनि का बोधक है। टीकाकार ने 'योनि' शब्द की व्युत्पत्ति इस प्रकार की है____ “यौति मिश्रीभवत्यौदारिकादिशरीरवर्गणापुद्गलैंरसुमान् यासु ता योनयः प्राणिनामुत्पत्तिस्थानानि।" ___ अर्थात्-यह जीव औदारिक, वैक्रिय आदि शरीर-वर्गणा के पुद्गलों को लेकर जिसमें मिश्रित होता है, संबन्ध करता है, उस स्थान को 'योनि' कहते हैं। दूसरे शब्दों में, योनि उत्पत्ति-स्थान का नाम है। प्रज्ञापना सूत्र के योनिपद में नव प्रकार की योनि बताई गई हैं-1-शीत, 2-ऊष्ण, 3-शीतोष्ण, 4-सचित्त, 5-अचित्त, 6-सचित्ताचित्त, 7-संवृत्त, 8-विवृत्त और 9-संवृत्तविवृत्त।
इन की अर्थ-विचारणा इस प्रकार है
1-शीत योनि-जिस उत्पत्ति स्थान में शीत स्पर्श पाया जाए, उसे शीत योनि कहते हैं।
2-उष्ण योनि-जिस उत्पत्ति स्थान का स्पर्श उष्ण हो, उसे उष्ण योनि कहा है।
_3-शीतोष्ण योनि-जिस उत्पत्ति स्थान का स्पर्श कुछ शीत और कुछ उष्ण है, उसे शीतोष्ण योनि कहा है।