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प्रथम अध्ययन, उद्देशक 1
विभिन्न योनियों के साथ सम्बन्धित होता है और अनेक तरह के स्पर्शजन्य दुःखों का संवेदन एवं उपभोग करता है। हिन्दी-विवेचन
प्रस्तुत सूत्र में सूत्रकार ने संसार-परिभ्रमण एवं दुःख-प्राप्ति की कारणभूत सामग्री का उल्लेख करके सुखाभिलाषी मुमुक्षु को उससे निवृत्त होने का उपदेश दिया है। ___ “अपरिण्णायकम्मा” का अर्थ है-अपरिज्ञात-कर्मा। जो प्राणी कर्म-बन्धन की कारणभूत क्रियाओं के स्वरूप से तथा उसकी हेय-उपादेयता से अपरिचित है, उसे अपरिज्ञात-कर्मा कहा है। क्योंकि उसमें ज्ञान का अभाव होता है, उसे कर्म और क्रिया के स्वरूप का सम्यग् बोध नहीं होता है और सम्यग् बोध नहीं होने के कारण वह अज्ञानी व्यक्ति न हेय क्रिया का परित्याग कर सकता है और न उपादेय को स्वीकार कर सकता है। क्योंकि हेय और उपादेय क्रिया का त्याग एवं स्वीकार वही व्यक्ति कर सकता है, जिसे उस वस्तु के यथार्थ स्वरूप का ज्ञान है। ज्ञान में जानना और त्यागना दोनों का समावेश हो जाता है। इसी कारण ज्ञान को परिज्ञा कहा है और परिज्ञा के ज्ञपरिज्ञा और प्रत्याख्यान परिज्ञा, ये दो भेद करके इस बात को स्पष्ट कर दिया है कि ज्ञान का महत्त्व हेय वस्तु का या आत्मविकास में बाधक पदार्थों का त्याग करने में है।
जो व्यक्ति कर्म एवं क्रिया के यथार्थ ज्ञान से रहित है, अपरिचित है वह स्वकृत कर्म के अनुरूप द्रव्य और भाव दिशाओं में परिभ्रमण करता है। जब तक आत्मा कर्मों से संबद्ध है, तब तक वह संसार के प्रवाह में प्रवहमान रहेगा। एक गति से दूसरी गति में या एक योनि से दूसरी योनि में भटकता फिरेगा। इस भव-भ्रमण से छुटकारा पाने के लिए कर्म एवं क्रिया के स्वरूप का यथार्थ ज्ञान करना तथा उसके अनुरूप आचरण बनाना मुमुक्षु प्राणी के लिए आवश्यक है। इसलिए आगमों में सम्यग् ज्ञान पूर्वक सम्यग् क्रिया करने का आदेश दिया गया है।
“अयं पुरिसे जे..........” प्रस्तुत सूत्र में प्रयुक्त 'पुरिसे' यह पद 'पुरुष' इस अर्थ का बोधक है। पुरुष शब्द की व्याख्या करते हुए आचार्य शीलांक ने लिखा है
“पुरि शयनात्पूर्णः सुखं-दुःखानां व पुरुषो जन्तुर्मनुष्यो वा”