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________________ श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध के लिए छुटकारा पा जाती है। अतः मुमुक्षु के लिए क्रियाओं का परिज्ञान करना आवश्यक है। प्रस्तुत सूत्र में कर्म-बन्धन की हेतुभूत क्रियाओं की इयत्ता-परिमितता का वर्णन किया गया है और साथ में यह प्रेरणा भी दी गई कि साधक को क्रिया के स्वरूप का बोध करना चाहिए और उसे क्रियाओं से निवृत्त होने का प्रयत्न करना चाहिए। क्योंकि इनसे निवृत्त होकर ही साधक कर्म-बन्धन एवं संसार-परिभ्रमण के दुःखों से छुटकारा पा सकता है। जो व्यक्ति कर्म-बन्धन की कारणभूत क्रियाओं से विरत नहीं होता है, उसे जिस फल की प्राप्ति होती है, उसका वर्णन सूत्रकार इस प्रकर करते हैं मूलम्-अपरिण्णायकम्मा खलु अयं पुरिसे जो इमाओ दिसाओ, अणुदिसाओ अणुसंचरइ, सव्वाओ दिसाओ, सव्वाओ अणुदिसाओ साहेति । अणेगरूवाओ जोणीओ संधेइ, विरूवसवे फासे पडिसंवेदेइ॥9॥ ___ छाया-अपरिज्ञातकर्मा खल्वयं पुरुषो य इंमा दिशा, अनुदिशा अनुसंचरति, सर्वा दिशाः, सर्वा अनुदिशाः सेहेति। अनेकरूपा योनीः सन्धयति, विरूपरूपान् स्पर्शान् प्रतिसंवेदयति। ___ पदार्थ-जो पुरिसे-जो पुरुष। अपरिण्णायकम्मा अपरिज्ञात-कर्मा होता है। खलु-निश्चय से। अयं-यह पुरुष। इमाओ दिसाओ, अणुदिसाओ-इन दिशाविदिशाओं में। अणुसंचरइ-परिभ्रमण करता है। सव्वाओ दिसाओ-सब दिशाओं में। सव्वाओ अणु दिसाओ साहेति-सब विदिशाओं में जाता है। अणेगरूवाओ जोणीओ-नाना प्रकार की योनियों को। सन्धेइ-प्राप्त करता है। विरूवरूवे फासे-अनेक तरह के स्पर्शजन्य दुःखों का। पडिसंवेदेइ-संवेदन करता है, अनुभव करता है। मूलार्थ-जो व्यक्ति कर्मबन्ध की कारणभूत क्रियाओं के यथार्थ स्वरूप को भलीभांति नहीं जानता है और उनका परित्याग नहीं करता है, वह इन दिशा-विदिशाओं में परिभ्रमण करता है और सभी दिशा-विदिशाओं में कर्मों के साथ जाता है।
SR No.002206
Book TitleAcharang Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages1026
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size19 MB
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