________________
प्रथम अध्ययन, उद्देशक 1
भगवान महावीर ने यह कहकर ज्ञान की उपयोगिता एवं महत्ता को स्पष्ट रूप से स्वीकार किया है कि ज्ञान-सम्पन्न आत्मा जीवादि नव तत्त्वों को जान लेता है और वह चार गति रूप संसार में विनाश को प्राप्त नहीं होता। वस्तुतः ज्ञान के बिना हेय-उपादेय का बोध नहीं होता। इसलिए सबसे पहले ज्ञान की आवश्यकता है, उसके बाद अन्य साधना या क्रियाओं की। इसी दृष्टि से सूत्रकार ने कर्म-बन्ध की हेतुभूत क्रियाओं की जानकारी कराई है।
जब तक साधक को क्रिया-संबन्धी जानकारी नहीं हो जाती, तब तक वह साधना के क्षेत्र में विकास नहीं कर सकता, मुक्ति के पथ पर आगे नहीं बढ़ सकता। संसार-सागर को पार करने के लिए क्रिया की हेयोपादेयता का परिज्ञान करना ज़रूरी है; क्योंकि क्रियाएं भी सभी समान नहीं हैं। हिंसा करना, झूठ बोलना, छल-कपट करना आदि भी क्रिया है और दया करना, मरते हुए प्राणी को बचाना, सत्य बोलना आदि भी क्रिया है। किन्तु दोनों में परिणामगत अन्तर है और उसी अन्तर के कारण एक हेय है, तो दूसरी उपादेय है और उसकी उपादेयता भी संसार-सागर से पार होने तक है, उसके बाद वह भी उपादेय नहीं है। ऐसे कहना चाहिए कि शुभ परिणामों से की जाने वाली शुभ क्रिया साधक अवस्था तक उपादेय है और सिद्ध अवस्था को पहुंचने पर यह भी हेय है! क्योंकि उसकी आवश्यकता साध्य की सिद्धि के लिए है, अतः साध्य के सिद्ध हो जाने पर फिर उसकी आवश्यकता ही नहीं रह जाती है। अतः इस हेयोपादेयता को समझने के लिए क्रिया-संबन्धी ज्ञान की आवश्यकता है।
और इसी कारण ज्ञान का जीवन में विशेष महत्व माना गया है। . ___ इससे तीन बातें स्पष्ट होती हैं-1- ज्ञान के द्वारा वस्तु-तत्त्व का यथार्थ बोध हो जाता है, आत्मा क्रिया के हेय-उपादेय के स्वरूप को भली-भांति समझ लेती है, 2- साध्य-सिद्धि में सहायक क्रियाओं का अनुष्ठान करता है और 3- ज्ञान एवं क्रिया दोनों की सम्यक् साधना-आराधना करके आत्मा एक दिन सिद्धि को प्राप्त कर लेती है, अर्थात् समस्त क्रियाओं से मुक्त हो जाती है, जन्म, जरा और मृत्यु से सदा
1. नाणसंपन्नयाए णं जीवे सव्वभावाहिगमं जणयइ।
नाणसंपन्ने णं जीवे चाउरन्ते संसार-कन्तारे न विणस्सइ॥ -उत्तराध्ययन; 29/59. 2. पढमं नाणं तओ दया।
-दशवैकालिक, 4.