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श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध
बन्ध और स्थिति बन्ध होता है और यही बन्ध आत्मा को संसार में परिभ्रमण करने की स्थिति में ले आता है।
क्रिया या योगों की प्रवृत्ति से कर्म का संग्रह होता है और वह कर्म-बन्ध के कारणभूत है। परंतु राग-द्वेष रहित योग-प्रवृत्ति कर्म-संग्रह अवश्य करती है, परंतु बन्ध का कारण नहीं बनती। जैसे तेरहवें गुणस्थान में क्रियाओं एवं योगों की प्रवृत्ति होती है और उस प्रवृत्ति से कर्म-प्रवाह का आगमन भी होता है, परन्तु राग-द्वेष की परिणति के अभाव में कर्म का बन्ध नहीं होता। वे कर्म-पुद्गल आते हैं, और तुरन्त झड़ जाते हैं, आत्मा के साथ बन्ध नहीं पाते। अस्तु, हम यों कह सकते हैं कि राग-द्वेष की परिणति से युक्त क्रियाएं कर्म-बन्ध की कारणभूत हैं और वे 27 ही हैं, इस बात को भली-भांति जान-समझ लेना चाहिए।
यह सत्य है कि क्रियाओं से शुभ एवं अशुभ दोनों तरह के कर्म-पुद्गलों का आगमन होता है। शुभ कर्म पुद्गल आत्म-विकास में सहायक होते हैं, फिर भी हैं तो त्याज्य ही। क्योंकि उनका सहयोग विकास-अवस्था में या यों कहिए कि साधना-काल में उपयोगी होने से साधक-अवस्था में आदरणीय भी है, परन्तु सिद्ध-अवस्था में उनकी कोई आवश्यकता नहीं रह जाती। अतः इस अवस्था में क्रिया-मात्र ही त्याज्य है। इस निश्चयनय की दृष्टि से शुभ क्रिया भी कर्म-बन्ध का एवं संसार में भले ही स्वर्ग में ही ले जाए; फिर भी है तो संसार ही, बंधन ही-परिभ्रमण कराने का कारण होने से निश्चय दृष्टि से सदोष एवं त्याज्य है।
निश्चय दृष्टि से क्रिया सदोष है, फिर भी आत्म-विकास के लिए उस का ज्ञान करना आवश्यक है। दोष को दोष कहकर उस की सर्वथा उपेक्षा कर देना या उसके स्वरूप को समझना ही नहीं, यह जैन धर्म को मान्य नहीं है। वह दोषों का परिज्ञान करने की बात भी कहता है। क्योंकि जब तक दोषों का एवं उन के कार्य का परिज्ञान नहीं होगा, तब तक साधक उससे बच नहीं सकता। इसलिए कर्मबन्ध की कारणभूत क्रियाओं के स्वरूप एवं उनसे होने वाले संसार-परिभ्रमण के चक्र को समझना-जानना भी ज़रूरी है। यही बात सूत्रकार ने प्रस्तुत सूत्र में बताई है कि मुमुक्षु को इनके स्वरूप को जानना चाहिए। क्योंकि जीवन में ज्ञान का विशेष महत्त्व है, उसके बिना जीवन का विकास होना कठिन ही नहीं असंभव है। ज्ञान के महत्त्व को बताते हुए