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प्रथम अध्ययन, उद्देशक 1 मूलम्-एयावंती सव्वावंती लोगंसि कम्मसमारंभा परिजाणियव्वा भवन्ति ॥8॥
छाया-एतावन्तः सर्वे लोके कर्मसमारम्भा परिज्ञातव्या भवन्ति।
पदार्थ-एयावंती सव्वावन्ती-इतने ही सब। लोगंसि-लोक में। कम्मसमारंभ-कर्म बन्धन की हेतु-भूत क्रियाएं। परिजाणियव्वा भवन्ति-जाननी चाहिए।
मूलार्थ-समस्त लोक में कर्मबन्ध की हेतुभूत क्रियाएँ इतनी ही जाननी-समझनी चाहिए, इनसे न्यूनाधिक नहीं। हिन्दी-विवेचन
पूर्व सूत्र में यह स्पष्ट कर दिया था कि तीनों काल में कृत, कारित एवं अनुमोदित की अपेक्षा से क्रिया के नव भेद बनते हैं और इन सब का मन, वचन और काया-शरीर के साथ संबन्ध जुड़ा हुआ होने से, इनके 27 भेद होते हैं। प्रस्तुत सूत्र में यह बताया गया है कि सारे लोक में 27 तरह की क्रियाएं हैं, इस से अधिक या कम नहीं हैं और ये क्रियाएं कर्म-बन्धन के लिए कारणभूत हैं। क्योंकि जब आत्मा में क्रियाओं के रूप में परिणति होती है तो उसके आस-पास में स्थित कर्म-वर्गणा के पुद्गलों का आत्मा मे संग्रह होता है। इस तरह ये क्रियाएँ कर्म-बन्ध का कारण-भूत मानी जाती हैं। इनके अभाव में आत्मा कर्मों से सर्वथा अलिप्त रहती है। क्योंकि कृत, कारित आदि क्रियाओं के कारण आत्मा में गति होती है और आत्म-परिणामों की परिणति के अनुरूप आस-पास के क्षेत्र में स्थित कर्म-वर्गणा के पुद्गलों में गति होती है और उनका आत्म-प्रदेशों के साथ संबन्ध होता है। अतः जब तक आत्मा में क्रियाओं का प्रवाह प्रवहमान है, तब तक कर्म का आगमन भी होता रहता है। हां, यह बात अवश्य समझने की है कि क्रिया से कर्मों का संग्रह होता है, कर्मों के स्वभाव के अनुसार आत्म-प्रदेशों के साथ उनका संबन्ध होता है; परन्तु जब तक क्रिया के साथ राग-द्वेष एवं कषाय की परिणति नहीं होती, तब तक उनका आत्म-प्रदेशों के साथ बन्ध नहीं होता, या यों कहना चाहिए कि क्रिया से प्रकृति और प्रदेश बन्ध, अर्थात् कर्मों का संग्रह मात्र होता है और राग-द्वेष एवं काषायिक परिणति से अनुभाग-रस