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________________ 58 श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध प्रश्न हो सकता है कि जब आदि और अन्त के ग्रहण से मध्यवर्ती का ग्रहण हो जाता है, तो फिर सूत्रकार ने 'कारवेसुं चऽहं' इस भूतकालिक कारित क्रिया का निर्देश क्यों किया? उक्त न्याय से इस भूतकालिक कारित क्रिया-भेद का ग्रहण किया जा सकता था। इस प्रश्न का समाधान करते हुए आचार्य शीलांक ने कहा “अस्यैवार्थस्याविष्करणाय द्वितीयो विकल्पः ‘कारवेसुं चऽहं' इति सूत्रेणोपात्तः।” अर्थात्-आदि और अन्त के ग्रहण करने पर मध्यवर्ती पदों का ग्रहण हो जाता है, इस बात को स्पष्ट करने के लिए सूत्रकार ने 'कारवेसु चऽहं' पद का प्रयोग किया है। यदि उक्त पद का प्रयोग न किया गया होता तो इस न्याय की परिकल्पना भी कैसे की जा सकती थी? अतः उक्त न्याय का यथार्थ रूप समझ में आ सके, इसलिए इस पद का प्रयोग किया गया। इसके अतिरिक्त, यह भी समझ लेना चाहिए कि मूल सूत्र में प्रयुक्त तीन चकार से क्रियाओं का और अपि शब्द से मन, वचन और कायशरीर का ग्रहण किया गया है। प्रस्तुत सूत्र में यह समझने एवं ध्यान देने की बात है कि मन, वचन और शरीर के द्वारा तीनों कालों में होने वाली कृत, कारित और अनुमोदित सभी क्रियाएं आत्मा में होती है। उक्त सभी क्रियाओं में आत्मा की परिणति स्पष्ट परिलक्षित हो रही है। क्योंकि धर्मी में परिवर्तन हुए बिना धर्मों में परिवर्तन नहीं होता। इसी अपेक्षा से पहले आत्मा में परिणमन होता है, बाद में क्रिया में परिणमन होता। अतः क्रिया के परिणमन को आत्म-परिणति पर आधारित मानना उचित एवं युक्तिसंगत है। निष्कर्ष यह निकला कि 'अहं' पद से अभिव्यक्त जो आत्मा है, उसका परिणमन ही विशिष्ट क्रिया के रूप में सामने आता है। अतः विभिन्न कालवर्ती क्रियाओं में कर्तृत्व रूप से अभिव्यक्त होने वाला आत्मा एक ही है। ____ हम सदा-सर्वदा देखते हैं, अनुभव करते हैं कि तीनों कालों की कृत, कारित एवं अनुमोदित क्रियाएं पृथक् हैं और इन सबका पृथक्-पृथक् निर्देश किया जाता है। तीनों कालों की क्रियाओं में कालगत भेद होने से अर्थात् विभिन्न काल-स्पर्शी होने के कारण ये समस्त क्रियाएं एक-दूसरे से पृथक् हैं, परन्तु इन विभिन्न समयवर्ती क्रियाओं में विशिष्ट रूप से प्रयुक्त होने वाला 'मैं अर्थात् 'अहं' पद एक ही है। इन विभिन्न समयवर्ती विभिन्न क्रियाओं में जो एक श्रृंखलाबद्ध संबंध परिलक्षित हो रहा है, वह
SR No.002206
Book TitleAcharang Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages1026
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size19 MB
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