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प्रथम अध्ययन, उद्देशक 1
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गया है; थोड़े शब्दों में अधिक भाव एवं अर्थ व्यक्त किया गया है। वस्तुतः सूत्र का तात्पर्य ही यह है कि थोड़े-से-थोड़े शब्दों में अधिक बात कही जाए, आवश्यकता से अधिक शब्दों का प्रयोग न किया जाए। इसी दृष्टि को सामने रखकर सूत्रकार ने च एवं अपि शब्द से स्पष्ट होने वाले छह क्रिया-भेदों के लिए शब्द-रचना न करके उसे तीन भेदों के द्वारा अभिव्यक्त किया है। हां, यह समझ लेना आवश्यक है कि किस चकार से किस क्रिया का ग्रहण करना चाहिए। _ 'अकरिस्सं चऽहं' में प्रयुक्त 'नकार' भूतकालीन 'कारित और अनुमोदित' क्रिया का परिबोधक है। 'कारवेसु चऽहं' यहां व्यवहृत ‘चकार' वर्तमानकालिक ‘कृत और अनुमोदित' क्रिया का परिचायक है और 'करओ आवि (चापि)' इस पद में प्रयोग किया गया ‘धकार' भविष्यत्कालीन ‘कृत और कारित' क्रिया का संसूचक है। प्रस्तुत सूत्र में दिये गये ‘अपि' शब्द से मन, वचन और काय शरीर इन तीन योगों के साथ क्रिया के नवभेदों के सम्बन्ध का परिबोध होता है। इस तरह थोड़े से शब्दों में सूत्रकार ने क्रिया के 27 भेदों को स्पष्ट रूप से अभिव्यक्त कर दिया है और इसी आधार पर क्रिया के 27 भेद माने गए हैं। ___ प्रस्तुत सूत्र में भूत, वर्तमान एवं भविष्यकाल-सम्बन्धी क्रमशः कृत, कारित और अनुमोदित एक-एक क्रिया का वर्णन करके चकार एवं अपि शब्द से अन्य क्रियाओं का निर्देश कर दिया है। परन्तु आचार्य शीलांक का अभिमत है कि प्रस्तुत सूत्र में भूत और भविष्यत् दो कालों की ओर निर्देश किया है। उन्होंने प्रस्तुत सूत्र की संस्कृत-छाया इस प्रकार बनाई है
“अकार्षं चऽहं, अचीकरं चऽहं, कुर्वतश्चापि समनुज्ञो भविष्यामि" ___ आचार्य शीलांक के विचार से 'अकरिस्सं-अकार्षम्' यह भूतकालिक कृत क्रिया है और 'कारवेसुं-अचीकरम्' यह भूतकालीन कारित किया है और 'करओ आवि समणुन्ने भविष्स्सं' यह भविष्यत्कालीन अनुमोदित क्रिया है। इस तरह सूत्रकार ने प्रस्तुत सूत्र में दो कालों का निर्देश किया है, तीसरे वर्तमान काल का ग्रहण उन्होंने इस न्याय से किया है कि आदि और अन्त का ग्रहण करने पर मध्यमवर्ती का ग्रहण हो जाता है।
1. आद्यन्तग्रहणेन मध्यगानामपि ग्रहणम्।