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प्रथम अध्ययन, उद्देशक 1
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आत्मा की एकरूपता के आधार पर ही अवलम्बित है। क्योंकि प्रत्येक क्रिया एक काल-स्पर्शी है, जब कि आत्मा तीनों कालों को स्पर्श करती है। यदि आत्मा को त्रिकाल-स्पर्शी न माना जाए तो उस में त्रिकाल में होने वाली पृथक्-पृथक क्रियाओं की अनुभूति घटित नहीं हो सकती और न उसमें भूतकाल की स्मृति एवं भविष्य के लिए सोचने-विचारने की शक्ति ही रह जाएगी। अतीत की स्मृति एवं अनागत काल के लिए एक रूपरेखा तैय्यार करने की चिन्तन-शक्ति आत्मा में देखी जाती है। इस से स्पष्ट सिद्ध होता है कि आत्मा परिणामी नित्य है, त्रिकाल को स्पर्श करती है।
यह स्पष्ट देखा जाता है कि कुछ व्यक्ति शक्ति और धन के मद में आसक्त होकर यौवनकाल में दुष्कृत्य एवं अपने से दुर्बल व्यक्तियों के साथ दुर्व्यवहार करते हैं। परन्तु वृद्ध अवस्था में शक्ति का ह्रास हो जाने के कारण वे अपने द्वारा कृत दुष्कृत्यों का स्मरण करके दुःखी होते हैं और पश्चात्ताप करते हुए एवं आंसू बहाते हुए भी नज़र आते हैं। उनकी दुर्दशा को देखकर आस-पास में निवसित लोग भी कहने से नहीं चूकते कि इस भले आदमी ने धन, यौवन और अधिकार के नशे में कभी नहीं सोचा कि मुझे इन दुष्कृत्यों का फल भी चखना पड़ेगा, उसने यह भी कभी नहीं विचारा कि ये क्षणिक शक्तियां नष्ट हो जाएंगी, तब मेरी क्या दशा होगी, उसी का यह परिणाम है। इस से विभिन्न समय में होने वाली त्रिकालवर्ती क्रियाओं का एक-दूसरे काल के साथ स्पष्ट सम्बन्ध दिखाई देता है। प्रथम समय में वर्तने वाला वर्तमान दूसरे समय में अतीत की स्मृति में बदल जाता है और भविष्य के क्षण धीरे-धीरे क्रमशः वर्तमान के रूप में वर्त कर अतीत की स्मृति में विलीन हो जाते हैं। इसी कारण वर्तमान में अतीत की मधुर एवं दुःखद स्मृतियाँ तथा अनागत काल की योजनाएं बनती हैं; और इन त्रिकालवर्ती क्रियाओं की शृङ्खला को जोड़ने वाली आत्मा सदा एकरूप रहती है। वह पर्यायों की दृष्टि से प्रत्येक काल में परिवर्तित होती हुई भी द्रव्य की दृष्टि से एकरूप है। उसकी एकरूपता प्रत्येक काल में स्पष्ट प्रतीत होती है। इससे यह सिद्ध होता है कि त्रिकालवर्ती क्रियाओं में एकीकरण स्थापित करने वाली आत्मा है और वह परिणामी नित्य है। जैसे एक भव में अतीत, वर्तमान एवं अनागत की क्रियाओं के साथ आत्मा का संबन्ध है, उसी तरह अनन्त भवों की क्रियाओं के साथ भी आत्मा का एवं वर्तमान भव से संबन्धित क्रियाओं का संबन्ध है। क्योंकि