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प्रथम अध्ययन, उद्देशक 1
नहीं हैं, क्यांकि प्रत्येक द्रव्य अनेक गुणयुक्त है। अतः जैनदर्शन ने अनुभव - सिद्ध परिणामी नित्यता को स्वीकार किया है। क्योंकि ज्ञानदर्शन आत्मा का गुण है और उसमें प्रतिक्षण परिवर्तन होता रहता है, ज्ञानदर्शन की पर्यायें बदलती रहती हैं तथा कर्म से बद्ध आत्मा के शरीर में, मानसिक चिन्तन में, विचारों की परिणति में, परिणामों तथा नरकं, तिर्यञ्च, मनुष्य और देव आदि गतियों की अवस्थाओं में परिवर्तन होता रहता है, परन्तु इन सब पर्यायिक परिवर्तनों में आत्मा अपने स्वरूप में सदा स्थित रहता है। उसके असंख्यात प्रदेशों तथा शुद्ध स्वरूप में कोई परिवर्तन नहीं आता । इस दृष्टि से आत्मा नित्य भी और अनित्य भी, अर्थात् - परिणामी नित्यनित्यानित्य है ।
यही सापेक्ष दृष्टि आत्मा को एक और अनेक मानने तथा उसके आकार-परिमाण आदि के संबंध में भी रही हुई है। जैनदर्शन वेदान्त - सम्मत एक आत्मा तथा नैयायिकों द्वारा मान्य अनेक आत्मा के एकान्त पथ को न स्वीकार कर, वह दोनों के आंशिक सत्य को स्वीकार करता है । आत्मा द्रव्य की अपेक्षा से लोक में स्थित अनन्त - अनन्त आत्माएं समान गुण वाली हैं, सत्तां की दृष्टि से सबमें समानता है, क्योंकि सभी आत्माएं असंख्यात प्रदेशी हैं, उपयोग गुण से युक्त हैं, परिणामी नित्य हैं। इसी अपेक्षा से स्थानांग सूत्र में कहा गया है - 'एगे आया' अर्थात् आत्मा एक है। यह हुई समष्टि की अपेक्षा, परन्तु व्यष्टि की अपेक्षा से सभी आत्माएं अलग-अलग हैं, सबका ज्ञानदर्शन एवं उसकी अनुभूति अलग-अलग है, सबका अपना स्वतन्त्र अस्तित्व है। संसार में परिभ्रमणशील अनन्त - अनन्त आत्माओं का सुख - दुःख का संवेदन अलग-अलग है, सबका उपयोग भी विभिन्न प्रकार का है - किसी में ज्ञान का, उत्कर्ष है, तो किसी में अपकर्ष है । इस अपेक्षा को सामने रखकर आगम में कहा गया कि आत्माएं अनन्त हैं' और दोनों अपेक्षाएँ सत्य हैं, अनुभवगम्य हैं । अस्तु, निष्कर्ष यह रहा कि आत्मा एक भी है और अनेक भी है। उसे एकान्ततः एक या अनेक न कहकर 'एकानेक' कहना मानना चाहिए ।
आत्मा के परिमाण के सम्बन्ध में भी सभी दर्शनों में एकरूपता नहीं है । कुछ आत्मा को सर्वव्यापक मानते हैं, तो कुछ विचारक - अणुपरिमाण वाला मानते हैं । जैनों
1. अणताणि य दव्वाणि, कालो पुग्गलजंतवो ।
- उत्तराध्ययन सूत्र, 28/8