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श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध
क्रिया का परिज्ञाता होता है । इस तरह एक का ज्ञान दूसरे पदार्थ का जानने में सहायक है। जब आत्मा एक तत्त्व को भलीभांति जान लेता है, तो वह दूसरे तत्त्व के स्वरूप को भी सुगमता से समझ सकता है, क्योंकि लोक में स्थित तत्त्व एक-दूसरे से सम्बन्धित हैं। आत्मा भी तो लोक में ही स्थित है, लोक के बाहर उसका अस्तित्व ही नहीं है। इसी तरह लोक एवं कर्म का संबंध रहा हुआ है । कर्म भी लोक-संसार में स्थित जीवों के बँधते हैं । कर्म और क्रिया का संबंध तो स्पष्ट ही है । इसलिए जो व्यक्ति आत्मा के स्वरूप को भलीभांति जान लेता है, तो फिर उससे लोक का स्वरूप, कर्म का स्वरूप एवं क्रिया का स्वरूप अज्ञात नहीं रहता । इसी आचारांग सूत्र में आगे बताया है कि जो व्यक्ति एक को जानता है, वह सबको जानता है और जो सबको जाता है, वह एक को जानता है
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"जे एगं जाणइ से सव्वं जाणइं, जे सव्वं जाणइ से एगं जाणइ "
वस्तु का विवेचन करने के लिए सबसे पहले ज्ञान की आवश्यकता है। जब तक जिस वस्तु के स्वरूप का परिज्ञान नहीं है, तब तक उसके संबंध में कुछ भी नहीं कहा जा सकता। इसी कारण सूत्रकार ने पहले ज्ञान-प्राप्ति के साधन का विवेचन किया और उसके पश्चात् आत्मा, लोक, कर्म एवं क्रिया के स्वरूप को स्पष्ट रूप से प्रतिपादन करने वाली आत्मवादी, लोकवादी, कर्मवादी और क्रियावादी वक्ताओं का विवेचन किया । ज्ञान का जितना अधिक विकास होता है, व्यक्ति उतना ही अधिक आत्मा आदि द्रव्यों को स्पष्ट एवं असंदिग्ध रूप से जानता - समझता एवं परिज्ञात विषय का विवेचन एवं प्रतिपादन कर सकता है।
जैनदर्शन के अनुसार आत्मा शुभाशुभ कर्म का कर्ता एवं कर्म-जन्य अच्छे-बुरे फलों का भोक्ता, असंख्यात प्रदेशी, शरीरव्यापी अखण्ड, चैतन्य रूप एक स्वतन्त्र द्रव्य है । उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य - युक्त है। वह पर्यायों की अपेक्षा प्रतिक्षण परिवर्तनशील है, तो द्रव्य की अपेक्षा से सदा अपने रूप में स्थित रहने से नित्य भी है । वास्तव में देखा जाए तो वह न सांख्य मत के अनुसार एकांत - कूटस्थ नित्य है, और न बौद्धों द्वारा मान्य एकान्त अनित्य - क्षणिक ही है । जैनदर्शन के अनुसार दुनिया का कोई पदार्थ न एकान्त नित्य है और न एकान्त अनित्य है । प्रत्येक पदार्थ में नित्यता और अनित्यता दोनों धर्म युगपत् स्थित हैं। किसी भी द्रव्य में एकान्तता को अवकाश ही