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श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध को दोनों मान्यताएं स्वीकार नहीं हैं, वे आत्मा को मध्यम परिमाण वाला मानते हैं। अर्थात् अनियत परिमाण वाला। क्योंकि शुद्ध आत्मा का कोई परिमाण है नहीं, परिमाण-आकार रूपी पदार्थों के होते हैं और आत्मा अरूपी है। फिर भी आत्मप्रदेशों को स्थित होने के लिए कुछ स्थान अवश्य चाहिए। इस अपेक्षा से आत्म-प्रदेश जितने स्थान को घेरते हैं, वह आत्मा का परिमाण कहा जाता है। आत्माएं अनंत हैं
और प्रत्येक आत्मा के असंख्यात प्रदेश हैं, अर्थात् प्रदेशों की दृष्टि से सब आत्माएं तुल्य प्रदेश वाली हैं और आत्मप्रदेश स्वभाव से संकोच-विस्तार वाले हैं। जैसा छोटा या बड़ा साधन मिलता है, उसी के अनुरूप वे अपने आत्मप्रदेशों को संकोच भी कर लेती हैं और फैला भी देती हैं। जैसे-विशाल कमरे को अपने प्रकाश से जगमगाने वाला दीपक, जब छोटे-से कमरे में रख दिया जाता है तो वह उसे ही प्रकाशित कर पाता है अथवा उसका विराट् प्रकाश छोटे-से कमरे में समा जाता है। यों कहना चाहिए कि दीपक को छोटे-से कमरे से उठाकर विशाल हॉल मे ले जाते हैं तो कमरे के थोड़े-से आकाश-प्रदेशों पर स्थित प्रकाश हाल के विस्तृत आकाश-प्रदेशों पर फैल जाता है और हॉल से कमरे में आते ही अपने प्रकाश को संकुचित कर लेता है। यही स्थिति आत्म-प्रदेशों की है। जैसा-छोटा या बड़ा शरीर मिलता है, उसी में असंख्यात
आत्म-प्रदेश स्थित हो जाते हैं। सिद्ध अवस्था में शरीर नहीं है, वहां आत्मा का परिमाण इस प्रकार समझना चाहिए-जिस शरीर में से आत्मा मुक्त अवस्था को प्राप्त होती है, उस शरीर के तीन भाग में से दो भाग जितने आकाश-प्रदेशों को वह आत्मा घेरता है। शरीर की दृष्टि से अनन्त आत्माओं के विभिन्न आकार वाले शरीर हैं तथा विभिन्न आकार युक्त शरीरों में से सिद्ध हुए हैं, अतः सभी आत्माओं का परिमाण-आकार एक एवं नियत नहीं हो सकता। इसी अपेक्षा से जैनदर्शन ने आत्मा का मध्यम अर्थात् अनियत या शरीर प्रमाण आकार माना और यह अनुभवगम्य भी है। __ आत्मा को शरीर-परिमाण या मध्यम परिमाण वाला मानने से आत्मा में अनित्यता का दोष आ जाएगा। ठीक है, अनित्यता से बचने के लिए वास्तविकता को ठुकराना
1. दीहं वा हस्सं वा, जं चरिमभवे हवेज्ज संठाणं । तत्तो तिभागहीणं सिद्धाणोगाहणा भणिया।
-उववाई सूत्र।