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श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध
कि हे आत्मन्-'तू तू नहीं, तू वह है' अर्थात् 'तू' केवल संसार में परिभ्रमण करने वाला आत्मा ही नहीं है, बल्कि पुरुषार्थ के द्वारा कर्म-बन्धन को तोड़कर परमात्मा भी बन सकता है। इसलिए तू अपने को उस रूप में देख। यही 'अहम्' से 'सः' बनने का या आत्मा से परमात्मा बनने की साधना का या ‘सोऽहम्' का चिन्तन-मनन एवं आराधना करने का एक मार्ग है।
जैनदर्शन का विश्वास है कि प्रत्येक भव्य आत्मा में परमात्मा बनने की योग्यता है। यथोचित साधन-सामग्री के उपलब्ध होने पर आत्मा सम्यक् पुरुषार्थ करके परमात्म पद को पा सकता है। आगमों में बड़े विस्तार के साथ साधनों का वर्णन किया गया है। साधनों के लिए अनेक साधन बताए गए हैं। उन साधनों में 'सोऽहं' का ध्यान, चिन्तन-मनन, अर्थ-विचारणा एवं मन्त्रजाप भी एक साधन है। साधना के पथ पर गतिशील साधक को आत्मविकास का प्रशस्त पथ दिखाने के लिए 'सोऽहं' का चिन्तन एवं ध्यान उज्ज्वल प्रकाश स्तम्भ है। जिसके ज्योतिर्मय आलोक में साधक आत्मविकास के पथ में साधक एवं बाधक तथा हेय एवं उपादेय सभी पदार्थों को भलीभांति जान लेता है और हेय उपादेय के परिज्ञान के अनुसार हेय पदार्थों से निवृत्त होकर साधना में, संयम में प्रवृत्त होता है, संयम में सहायक पदार्थों एवं क्रियाओं को स्वीकार करके सदा आगे बढ़ता है। इस प्रकार यथायोग्य विधि से 'सोऽहं' की विशिष्ट भावना का चिन्तन करता हुआ साधक निरन्तर आगे बढ़ता है, ज्ञानावरणीय कर्म का क्षयोपशम करता चलता है और एक दिन जाति-स्मरण ज्ञान, अवधि ज्ञान या मनःपर्यवज्ञान को प्राप्त कर लेता है तथा ज्ञानावरणीय कर्म का समूलतः क्षय करके अपनी आत्मा में स्थित अनन्त ज्ञान-केवल ज्ञान को प्रकट कर लेता है। जाति स्मरण ज्ञान से पूर्व भव में निरन्तर किए गए संज्ञी पञ्चेन्द्रिय के संख्यात भवों को अवधि एवं मनःपर्यव ज्ञान से संख्यात और असंख्यात भवों को तथा केवल ज्ञान से अनन्त-अनन्त भवों को देख-जान लेता है।
प्रस्तुत सूत्र में ज्ञान-प्राप्ति के तीन कारणों का निर्देश किया गया है-1. सन्मति या स्वमति, 2. पर-व्याकरण और 3. परेतर-उपदेश। उक्त साधनों से मनुष्य अपने पूर्वभव की स्थिति को भली-भांति जान लेता है और उसे यह भी बोध हो जाता है कि इन योनियों में एवं दिशा-विदिशाओं में भ्रमणशील मैं ही हूँ। इससे उसकी साधना में दृढ़ता आती है, चिन्तन-मनन में विशुद्धता आती है।