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प्रथम अध्ययन, उद्देशक 1
आत्म-स्वरूप में कोई अन्तर नहीं है। क्योंकि सभी आत्मा से ही परमात्मा बनते हैं। परमात्मा कोई आत्मा से अलग शक्ति नहीं है। इस संसार में परिभ्रमण करने वाली आत्माओं ने ही विशिष्ट साधना के पथ पर गतिशील होकर आत्मा से परमात्मा पद को प्राप्त किया है और प्रत्येक आत्मा में उस पद को प्राप्त करने की सत्ता है। परंतु, वही आत्मा परमात्मा बन सकती है, जो साधना के महारथ पर गतिशील होकर राग-द्वेष एवं कर्मबन्धन को तोड़ डालती है। प्रत्येक आत्मा सम्यक् ज्ञान, दर्शन और चारित्र की आराधना-साधना करके सिद्धत्व को प्राप्त कर सकती है।
तो निष्कर्ष यह निकला कि 'सः और अहं' में कोई मौलिक एवं तात्त्विक भेद नहीं है। 'अहं' से ही विकास करके व्यक्ति 'सः' बनता है या यों कहिए कि आत्मा ही अपने जीवन का विकास करके परमात्म पद को प्राप्त करता है। इसलिए कहा गया कि मैं सिर्फ मैं नहीं हूँ, प्रत्युत मैं 'वह' हूँ जो 'वह है' अर्थात् मेरा स्वरूप परमात्मा के स्वरूप से भिन्न नहीं है। कुछ दार्शनिकों-विचारकों ने यह माना है कि आत्मा और परमात्मा दो तत्त्व हैं और दोनों एक-दूसरे से भिन्न हैं। एक भक्त और दूसरा भगवान् है, एक उपासक है और दूसरा उपास्य है। एक सेवक है और दूसरा स्वामी है और यह भेद सदा से चलता आ रहा है और सदा चलता रहेगा। आत्मा सदा आत्मा ही बना रहेगा, वह भक्त बन सकता है, परन्तु भंगवान् नहीं बन सकता। वह भगवान् की भक्ति करके उसकी कृपा होने पर स्वर्ग के सुख एवं ऐश्वर्य को प्राप्त कर सकता है, परन्तु ईश्वरत्व को नहीं पा सकता। कुछ वैदिक विचारकों ने यह तो माना कि वह ब्रह्म में समा सकता है और ब्रह्म की इच्छा होने पर फिर से संसार में परिभ्रमण कर सकता है। परन्तु स्वतन्त्र रूप से आत्मा में ईश्वर बनने की सत्ता किसी भी वैदिक परम्परा के विचारकों ने स्वीकार नहीं की। उन्होंने सदा यही कहा कि 'तू तू है और वह वह है' तथा 'यह 'तू और वह या मैं और वह या आत्मा और परमात्मा' का भेद सदा बना रहेगा। परन्तु जैनदर्शन ने इस बात पर स्वतन्त्र रूप से चिन्तन-मनन किया है। जैनों ने स्पष्ट रूप से कहा कि आत्मा का स्वरूप न तो परमात्म-स्वरूप से सर्वथा भिन्न ही है और न परमात्मा या ब्रह्म का अंश ही है। उसका अपना स्वतन्त्र अस्तित्व है। कर्म से आबद्ध होने के कारण वह परमात्मा से भिन्न प्रतीत होता है, परन्तु उसमें भी परमात्मा बनने की शक्ति है। इसलिए जैनों ने स्पष्ट भाषा में कहा