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श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध
भगवान के उपदेश से भी किन्हीं जीवों को ज्ञान की प्राप्ति में तीर्थंकर भगवान का उपदेश निमित्त कारण बनता है, इसलिए ऐसे ज्ञान की प्राप्ति में 'पर-व्याकरण' यह कारण माना गया है। वस्तुतः ज्ञान की प्राप्ति का मूल कारण ज्ञानावरणीय कर्म का क्षयोपशम भाव ही है। फिर भी उस क्षयोपशम भाव की प्राप्ति में जो सहायक सामग्री अपेक्षित होती है या जिस साधन के सहयोग से जीव ज्ञानवरणीय कर्म का क्षयोपशम करता है, उस साधन को भी ज्ञान-प्राप्ति का कारण मान लिया जाता है। 'पर-व्याकरण' ज्ञानावरणीय कर्म के क्षयोपशम में सहायक होता है, तीर्थंकरों का उपदेश सुनकर अपने स्वरूप को समझने की भावना उबुद्ध होती है, चिंतन में गहराई आती है, इससे अज्ञान का आवरण हटता है, आत्मा में ज्ञान की ज्योति प्रज्वलित होती है और वह उसके उज्ज्वल प्रकाश में अपने स्वरूप का प्रत्यक्षीकरण करती है, अतः ‘पर-व्याकरण' को ज्ञान-प्राप्ति का कारण स्वीकार किया गया है।
_ 'पर-व्याकरण' ज्ञान-प्राप्ति का बहिरंग साधन माना जाता है। तीर्थंकर भगवान के उपदेश के सहयोग से जीव अपनी पूर्व-भव-संबंधी बातों को जान लेता है और यह भी जान लेता है कि मैं पूर्व-पश्चिम आदि किस दिशा-विदिशा से आया हूँ, इत्यादि। पर-व्याकरण-तीर्थंकर भगवान के उपदेश से ज्ञान प्राप्त करके साधनापथ पर गतिशील हुए व्यक्तियों के संबंध में आगमों में अनेक उदाहरण उपलब्ध होते हैं। ज्ञाता धर्मकथांग में श्री मेघ कुमार मुनि का वर्णन आता है। मेघ कुमार मुनि दीक्षा की प्रथम रात्रि को ही मुनियों की ठोकरें बार-बार लगने से आकुल-व्याकुल हो उठे और उस रात्रि में प्राप्त वेदना से घबराकर उन्होंने यह निर्णय भी कर लिया कि मैं प्रातः संयम का परित्याग करके अपने राजभवन में पुनः लौट जाऊंगा। सूर्योदय होते ही मुनि मेघ कुमार संयम-साधना में सहायक भण्डोपकरण वापस लौटाने के लिए भगवान महावीर के चरणों में पहुंचे। सर्वज्ञ-सर्वदर्शी प्रभु ने मेघ मुनि के हृदय में मच रही उथल-पुथल को जान रहे थे, अतः उन्होंने वह कुछ कहें उसके पूर्व ही उसके मन में चल रहे सारे विचारों को अनावृत्त करके उसके सामने रख दिया और उसे संयम पथ पर दृढ़ करने के लिए उसके पूर्वभव का वृत्तांत सुनाते हुए बताया कि हे मेघ! तुमने हाथी के भव में जंगल में प्रज्वलित दावानल के समय अपने द्वारा तैयार किए मैदान में अपने पैर