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________________ प्रथम अध्ययन, उद्देशक 1 अस्तित्व-सत्ता रूप से सदा विद्यमान रहता है। यह बात अलग है कि अनेक जीवों में ज्ञानावरणीय कर्म के उदय से उसकी अनंत ज्ञान की शक्ति प्रच्छन्न रहती है। भले ही आत्मा की ज्ञान-शक्ति पर कितना भी गहरा आवरण क्यों न आ जाए, फिर भी वह सर्वथा प्रच्छन्न नहीं हो सकता, अनंत-अनंत काल के प्रवाह में एक भी समय ऐसा नहीं आता कि आत्मा का ज्ञान-दीप सर्वथा बुझ गया हो या बुझ जाएगा। वह सदा-सर्वदा प्रज्वलित रहता है। हां, कभी उसका प्रकाश मंद, मंदतर और मंदतम हो सकता है, पर सर्वथा बुझ नहीं सकता। उसका अस्तित्व आत्मा में सदा बना रहता है। वह आत्मा में समवाय-संबंध से नहीं, बल्कि तादात्म्य-संबंध से है। समवाय संबंध से स्थित ज्ञान समवाय-सम्बन्ध के हटते ही नाश को प्राप्त हो जायगा। परंतु ऐसा होता नहीं है और वस्तुतः देखा जाए तो ज्ञान का आत्मा के साथ समवाय-संबंध घट भी नहीं सकता। क्योंकि ज्ञान पर-स्वरूप नहीं, स्व-स्वरूप है। पर-पदार्थ से ज्ञान की उत्पत्ति मानना अनुभव एवं प्रत्यक्षादि प्रमाणों से विरुद्ध है। यदि ज्ञान पर-पदार्थ से ही पैदा होता है, तो फिर वह पदार्थ के हट जाने पर या सामने न होने पर उक्त पदार्थ का ज्ञान नहीं होना चाहिए। परंतु, ऐसा होता तो है। घट के हटा लेने पर भी घट का बोध होता है। घट के साथ-साथ घट-ज्ञान आत्मा में से नष्ट नहीं होता, उसकी अनुभूति होती है। कई बार घट सामने नहीं रहता, फिर भी घट का ज्ञान तो होता ही है। यदि वह पर-पदार्थ से ही उत्पन्न होता है, तो फिर घट के अभाव में घट का ज्ञान नहीं होना चाहिए और विशिष्ट साधकों को विशिष्ट ज्ञान से अप्रत्यक्ष में स्थित पदार्थों का प्रत्यक्ष ज्ञान होता है, वह भी नहीं होना चाहिए। विशिष्ट ऋषि-महर्षियों को योगि-प्रत्यक्ष ज्ञान वैशेषिक दर्शन के विचारकों ने भी माना है, जो उनके विचारानुसार गलत ठहरेगा। परंतु ऐसा होता है और वैशेषिक स्वयं मानते भी हैं, अतः आत्मा से ज्ञान को सर्वथा पृथक् एवं उसमें समवाय-संबंध से मानना युक्तिसंगत नहीं है। ज्ञान आत्मा में तादात्म्य-संबंध से सदा विद्यमान रहता है, इसी बात को 'सह' शब्द से अभिव्यक्त किया है। २. पर-व्याकरण ___ज्ञान-प्राप्ति का दूसरा कारण पर-व्याकरण है। प्रस्तुत सूत्र में 'पर' शब्द तीर्थंकर भगवान का बोधक है तथा 'व्याकरण' शब्द का अर्थ उपदेश है। अतः तीर्थंकर
SR No.002206
Book TitleAcharang Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages1026
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size19 MB
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