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प्रथम अध्ययन, उद्देशक 1 के नीचे आए हुए खरगोश की रक्षा करने के लिए जब तक दावानल शांत नहीं हुआ, तब तक अपने पैर को उठाए रखा, तीन पैरों पर ही खड़ा रहा। जब दावानल बुझ गया, सब पशु-पक्षी जंगल में चले गए, तब तुमने अपने पैर को नीचे रखा। पर वह पैर इतना अकड़ गया था कि तू धड़ाम से नीचे गिर पड़ा और थोड़ी देर में शुभ भावों के साथ जीवन को समाप्त करके श्रेणिक के घर जन्मा। हे मेघ! कहां खरगोश की रक्षा-दया के लिए घंटों पैर को ऊँचे रखने का कष्ट-जिसके कारण तुम्हें अपने जीवन से भी हाथ धोना पड़ा और कहां साधुओं के चरण स्पर्श से हुआ कष्ट, जरा सोच-समझ कि तू क्या करने जा रहा है? भगवान के द्वारा अपना पूर्व भव जानकर मेघ मुनि की भावना परिवर्तित हो गई। वह चिन्तन-मनन में गोते लगान लगा और विचारों में जरा गहरा उतरने पर उन्हें जातिस्मरण ज्ञान हो गया। भगवान द्वारा बताया गया वर्णन साफ-साफ दिखाई देने लगा। इसी तरह भगवान का उपदेश सुनकर सुदर्शन सेठ को भी जाति-स्मरण ज्ञान हो गया था। इसी तरह ‘पर-व्याकरण' से होने वाले ज्ञान के अनेकों उदाहरण शास्त्रों में उल्लिखित हैं।
३. परेतर उपदेश
ज्ञान-प्राप्ति का तीसरा साधन ‘परेतर-उपदेश' है। वैसे 'पर' और 'इतर' समानार्थक शब्द समझे जाते हैं। परंतु प्रस्तुत सूत्र में 'पर' शब्द तीर्थंकर भगवान का परिचायक है और 'इतर' अन्य का परिबोधक है। अतः इसका अर्थ हुआ-तीर्थंकर भगवान से अतिरिक्त ज्ञान वाले निर्ग्रन्थ मुनि, यति, श्रमण आदि महापुरुष ‘परेतर' हैं। तीर्थंकर पद से रहित केवलज्ञानी, मनःपर्यवज्ञानी या अवधिज्ञानी आदि विशिष्ट ज्ञानी एवं पूज्य पुरुषों के उपदेश से भी अनेक संसारी जीवों का अपने पूर्वभव का भी परिबोध होता है। इस प्रकार के बोध में 'परेतर-उपदेश' कारण बनता है। इसलिए प्रस्तुत सूत्र में ‘परेतर-उपदेश' को ज्ञान-प्राप्ति के अन्य साधनों में समाविष्ट किया गया है।
'परेतर-उपदेश' भी ज्ञान-प्राप्ति में बहिरंग कारण है। इस साधन से कई जीवों को अपने पूर्व भव का एवं आत्म-स्वरूप का भलीभांति बोध हो जाता है। आगमों में इस तरह ज्ञान प्राप्त करने के कई उदाहरण आते हैं। ज्ञाता धर्मकथांग में लिखा है कि मल्लि राजकुमारी के साथ विवाह करने के लिए 6 राजकुमार एक साथ चढ़कर आ जाते हैं और शहर को चारों तरफ से घेर लेते हैं। अन्त में उन्हें प्रतिबोध देने के लिए