________________
प्रथम अध्ययन, उद्देशक 1
अभाव में वह अपने अस्तित्व को अभिव्यक्त नहीं कर सकता। तो इससे स्पष्ट है कि 'मैं' को अभिव्यक्त करने वाली शरीर में स्थित शरीर से अतिरिक्त कोई शक्ति है
और वही शक्ति चेतना है, आत्मा है। तो मैं नहीं हूं' इस वाक्य से भी आत्मा के अस्तित्व की ही सिद्धि होती है। आत्मा के अस्तित्व का स्पष्ट बोध होने पर भी उससे इन्कार करना तो ऐसा है-जैसे कि लोगों में यह ढिंढोरा पीटना कि 'मेरी माता वन्ध्या है-मेरी माता वन्ध्या है' यह वाक्य सत्य से परे है, उसी तरह 'मैं नहीं हूं' या 'मेरी आत्मा का अस्तित्व नहीं है' कहना भी सत्य एवं अनुभव के विपरीत है। __ इसके अतिरिक्त हम देखते हैं कि हमारे शरीर की अवस्थाएं प्रतिक्षण बदलती रहती हैं। बाल्यावस्था से यौवनकाल सर्वथा भिन्न नजर आता है और बुढ़ापा बाल एवं यौवन दोनों कालों को ही पछाड़ देता है, उस समय शरीर की अवस्था एकदम बदल जाती है। शरीर में इतना बड़ा भारी परिवर्तन होने पर भी तीनों काल में किए गए कार्यों की अनुभूति में कोई अंतर नहीं आता। यदि शरीर ही आत्मा है या आत्मा क्षणिक है तो शरीर के परिवर्तन के साथ अनुभूति में भी परिवर्तन आना चाहिए। पुराने शरीर की समाप्ति के साथ-साथ पुरातन अनुभवों का भी जनाज़ा निकल जाना चाहिये। परंतु ऐसा होता नहीं है। तीनों काल में शारीरिक परिवर्तन होने पर भी आत्मानुभूति में एकरूपता बनी रहती है। इससे स्पष्ट सिद्ध होता है कि अनंत-अनंत भूतकाल में अनंत बार अभिनव-अभिनव शरीरों को धारण करने पर भी आत्मा के अस्तित्व में कोई अन्तर नहीं आया और न भविष्य में ही आने वाला है। जब तक रागद्वेष एवं कर्मबन्ध का प्रवाह चालू है, तब तक शरीरों का परिवर्तन होता रहेगा। एक काल के बाद दूसरे काल में या एक जन्म के बाद दूसरे जन्म में शरीर बदल जाएगा, परंतु उसके साथ आत्मा में परिवर्तन नहीं आता। वह त्रिकाल में एक रूप रहता है। इससे आत्मा का अस्तित्व स्पष्टतः प्रमाणित होता है। इसमें शंका-संदेह को जरा भी अवकाश नहीं है। ___ प्रस्तुत सूत्र में ‘एवं' शब्द 'इसी प्रकार' अर्थ का बोधक है। यह पद पिछले सूत्र से सम्बद्ध है। जैसे पिछले सूत्र में बताया गया है कि 'किन्हीं जीवों को ज्ञान नहीं होता।' उसी तरह प्रस्तुत में भी ‘एवमेगेसिं' आदि वाक्य का भी यही तात्पर्य है कि