________________
श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध
कुछ विचारक आत्मा को पांच भूतों से अलग मानते हैं और उसके स्वतंत्र अस्तित्व को स्वीकार करते हैं। इसी विचारभेद के आधार पर आस्तिकवाद और नास्तिकवाद इन दो वादों या दर्शनों की परंपरा सामने आई। इन उभय वादों का विचार-प्रवाह कब से प्रवहमान है, इसका पता लगा सकना ऐतिहासिकों की शक्ति से बाहर है। फिर भी आगमों एवं दर्शन-ग्रंथों के अनुशीलन-परिशीलन से इतना तो स्पष्ट है कि दोनों विचारधाराएं हजारों-लाखों वर्षों से प्रवहमान हैं।
यह हम देख चुके हैं कि नास्तिक दर्शन आत्मा के स्वतंत्र अस्तित्व को नहीं मानता है। परन्तु आस्तिक दर्शन आत्मा के स्वतंत्र अस्तित्व को स्वीकार करते हैं
और इस तथ्य को भी मानते हैं कि आत्मा अपने शुभाशुभ कर्म के अनुसार ऊर्ध्व; अधो या तिर्यग् दिशाओं में जन्म लेता है। स्वर्ग और नरक की निरापद-सुखद एवं भयावह-दुःखद पगडण्डियों को तय करता है और तप, ध्यान, स्वाध्याय एवं संयम आदि आध्यात्मिक साधनों के द्वारा अनंत काल से बंधते आ रहे कर्म बंधनों को समूलतः उच्छेद करके निर्वाण-मुक्ति को भी प्राप्त करता है। परन्तु नास्तिकवाद इस बात को नहीं मानते। उनकी दृष्टि में यह शरीर ही आत्मा है। इसके नाश होते ही आत्मा का भी विनाश हो जाता है। शरीर के अतिरिक्त अपने कृत-कर्म के अनुसार स्वर्ग-नरक आदि योनियों में घूमने वाली तथा कर्मबंधन को तोड़कर मुक्त होने वाली स्वतन्त्र आत्मा का कोई अस्तित्व नहीं है। जैनदर्शन को यह बात मान्य नहीं है। यहाँ आगमों के प्रत्यक्ष आदि सभी प्रमाणों एवं आत्म-अनुभव से सिद्ध आत्मा के अस्तित्व को स्पष्ट शब्दों में अभिव्यक्त किया गया है। आत्मा के अस्तित्व को प्रमाणित करने वाला सबसे बलवान प्रमाण स्वानुभूति ही है। व्यक्ति को किसी भी समय में अपने अस्तित्व में संदेह नहीं होता और आत्मा के अस्तित्व की प्रतीति उसे प्रतिक्षण होती रहती है। जब कोई नास्तिक व्यक्ति यह कहता है कि 'मैं नहीं हूँ' तो उसके इस उच्चारण में यह बात स्पष्ट ध्वनित होती है कि मेरा (आत्मा का) अस्तित्व है। मैं नहीं हूं' इस वाक्य में 'मैं' को अभिव्यक्त करने वाला कोई स्वतंत्र व्यक्ति है, क्योंकि जड़ में 'मैं' को अभिव्यक्त करने की ताकत है नहीं और यह केवल शरीर भी 'मैं' को अभिव्यक्त नहीं कर सकता। यदि अकेले शरीर में 'मैं' को अभिव्यक्त करने की शक्ति हो तो यह शरीर तो मृत्यु के बाद भी विद्यमान रहता है। परंतु चेतना के