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श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध
कई एक जीवों को यह परिज्ञान नहीं होता कि 'मैं उत्पत्तिशील हूँ या नहीं? मैं कहां से आया हूं और कहां जाऊंगा?' इत्यादि। उसी उद्देश्य को लेकर सूत्रकार ने प्रस्तुत सूत्र में ‘एवं' पद का प्रयोग किया है।
‘उववाइए' का अर्थ है औपपातिक। औपपातिक शब्द अनेक अर्थों में प्रयुक्त होता है। देव और नारकी को भी औपपातिक कहते हैं। देव-शय्या और नरक-कुम्भी-जिसमें देव और नारकी जन्म ग्रहण करते हैं-उसे उपपात कहते हैं। उपपात से उत्पन्न प्राणी औपपातिक कहलाते हैं। उक्त व्याख्या के अनुसार औपपातिक शब्द देव और नारकी का परिचायक है। परन्तु जब उक्त शब्द की इस प्रकार व्याख्या करते हैं : “उपपातः प्रादुर्भावो जन्मान्तरसंक्रांतिः उपपातं भवः औपपातिकः”
-शीलांकाचार्य तो इसका अर्थ हुआ-उत्पत्तिशील या जन्मांतर में संक्रमण करने वाला । प्रस्तुत प्रकरण में 'औपपातिक' दोनों अर्थों में प्रयुक्त किया जा सकता है। फिर भी शीलांकाचार्य आदि सभी टीकाकारों ने प्रस्तुत प्रकरण में उक्त शब्द को दूसरे अर्थ में ही प्रयुक्त किया है।
प्रस्तुत सूत्र में 'एगेसिं णो णायं भवति' ऐसा उल्लेख किया गया है। इससे यह भलीभांति स्पष्ट हो जाता है कि संसार के सभी जीवों को बोध नहीं होता, ऐसी बात नहीं है। बहुत से जीवों को ज्ञानावरणीय कर्म के क्षयोपशम के कारण इस बात का परिबोध हो जाता है कि 'मैं उत्पत्तिशील हूँ। मैं अमुक गति से आया हूं और यहां से मरकर अमुक गति में जाऊंगा। मेरी आत्मा का स्वतन्त्र अस्तित्व है, इत्यादि। इससे यह प्रश्न उठता है कि जिन जीवों को उक्त बातों का परिज्ञान होता है, वह नैसर्गिक-स्वभावतः होता है या किसी निमित्त या साधन विशेष से होता है। इस प्रश्न का समाधान अगले सूत्र में किया जा रहा है
मूलम्-से जं पुण जाणेज्जा सह संमइयाए, परवागरणेणं अण्णेसिं अन्तिए वा सोच्चा। तंजहा-पुरत्थिमाओ वा दि-साओ आगओ अहमंसि, जाव-अण्णयरीओ अणुदिसाओ वा आगओं अहमंसि।