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________________ श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध गहराई में गोते लगाते-लगाते ध्यानस्थ आत्मा को विशिष्ट बोध भी हो जाता है। यदि चिंतन-मनन का प्रवाह एक रूप से निर्बाध गति से सतत चलता रहे और विचारों में स्वच्छता एवं शुद्धता बनी रहे तो उसे यह भी परिज्ञात हो जाता है कि मैं किस दिशा से आया हूँ। फिर उससे यह रहस्य छिपा नहीं रहता और दिशा-सम्बन्धी आगमन के रहस्य का आवरण अनावृत होते ही उसकी आत्मा अपने स्वरूप में रमण करने लगती . है, साधना एवं ध्यान या चिंतन-मनन में संलग्न हो जाती हैं। इस तरह प्रस्तुत सूत्र मानसिक एवं वैचारिक चिन्तन के लिए बड़ा ही महत्त्वपूर्ण है। इससे विचारों में, चिन्तन में एवं साधना के प्रवृत्ति-क्षेत्र में एकाग्रता एवं एकरूपता आती है, ज्ञान का विकास होता है। प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है कि संसार में ऐसे भी अनेक जीव हैं, जिनको ज्ञानावरणीय कर्म के क्षयोपशम की न्यूनता के कारण इस बात का परिबोध नहीं होता कि मैं पूर्व-पश्चिम आदि किस दिशा-विदिशा से आया हूं। ऐसे जीवों को 'किस दिशा से आया हूं' इसके अतिरिक्त और भी जिन अनेक बातों का परिज्ञान नहीं होता है, उनका निर्देश करते हुए सूत्रकार कहते हैं इस सूत्र के आध्यात्मिक अर्थ आचार्य शिवमुनि जी द्वारा प्राप्त हुए हैं। वे उद्देशक के अन्त में देखिये। मूलम्-एवमेगेसिं णो णायं भवइ-अत्थि मे आया उववाइए, नत्थि मे आया उववाइए, के अहं आसी? के वा इओचुए इह पेच्चा भविस्सामि?॥4॥ छाया-एवमेकेषां नो ज्ञातं भवति-अस्ति मे आत्मा औपपातिकः, नास्ति मे आत्मा औपपातिकः, कोऽहमासम्? को वा इतश्च्युत इह प्रेत्य भविष्यामि? पदार्थ-एवमेगेसिं-इसी प्रकार किन्हीं जीवों को। णो णायं भवइ-यह ज्ञान नहीं होता। मे आया-मेरी आत्मा। उववाइए अत्थि-औपपातिक-उत्पत्तिशील है। आया, मे आया-मेरी आत्मा। उववाइए नत्थि-उत्पत्तिशील-जन्मान्तर में संक्रमण करने वाली नहीं है। के अहं आसी-मैं (पूर्व भव में) कौन था? वा-अथवा। इओ चुए-यहां से च्युत हो कर, अर्थात् यहां के आयुष्कर्म को भोग कर। इह-इस
SR No.002206
Book TitleAcharang Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages1026
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size19 MB
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