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प्रथम अध्ययन, उद्देशक 1
योग-दृष्टि से चिन्तन-जैन और वैदिक उभय परंपराओं में योग शब्द का प्रयोग मिलता है। शब्द-साम्यता होते हुए भी दोनों सम्पदाओं में योग शब्द के किए जाने वाले अर्थ में एकरूपता नहीं मिलती। दोनों इसका अपने-अपने ढंग से स्वतन्त्र अर्थ करते हैं। जैनदर्शन में योग शब्द का प्रयोग मन-वचन और काया की प्रवृत्ति में किया गया है। मानसिक, वाचिक एवं शारीरिक क्रिया को ही योग कहा गया है और मुमुक्षु के लिए आगमों में यह आदेश दिया गया है कि अपने मन-वचन और शरीर के योगों को अशुभ कामों से, पाप कार्यों से हटाकर शुभ कार्य में या संयम मार्ग में प्रवृत्त करे। इसे आगमिक परिभाषा में गुप्ति और समिति कहते हैं। जैन दृष्टि से मन, वचन और शरीर की प्रवृत्ति को योग कहते हैं और पातञ्जल योग दर्शन में योग शब्द का समाधि अर्थ किया है। पातञ्जल योगदर्शन वैदिक संप्रदाय का योग विषयक सर्वमान्य ग्रंथ है। प्रस्तुत ग्रंथ में योग की परिभाषा करते हुए पतञ्जलि ने लिखा है-“चित्त की वृत्तियों का निरोध करना अथवा उनकी प्रवृत्ति को रोकना योग है।"1
दोनों परम्पराओं की मान्य परिभाषा से यह स्पष्ट हो जाता है कि जैनदर्शन में योग शब्द का प्रयोग चित्तवृत्ति के निरोध में नहीं, बल्कि मन-वचन एवं शरीर के व्यापार में किया गया है। इस त्रियोग में चिंतन-मनन की प्रधानता रहती है। इस योगपद्धति से यदि प्रस्तुत सूत्र के आध्यात्मिक रहस्य पर गहराई से सोचा-विचारा एवं चिंतन-मनन किया जाए तो साधना के क्षेत्र में इस सूत्र का बहुत महत्त्व बढ़ जाता है। मुमुक्षु के लिए यह सूत्र बहुत ही उपयोगी है। ... प्रस्तुत सूत्र के वर्णनक्रम से कि सूत्रकार ने सर्वप्रथम पूर्वादि चार दिशाओं का और तदनंतर ऊर्ध्व और अधो इन दो दिशाओं का और अंत में विदिशाओं का क्रमशः वर्णन किया है। पूर्व आदि सभी दिशाओं का व्यवहार मेरु पर्वत को केंद्र मानकर किया जाता है, परंतु इसके अतिरिक्त व्यक्ति अपनी अपेक्षा से भी चिंतन कर सकता है। जब ध्यानस्थ व्यक्ति एक पदार्थ पर दृष्टि रखकर मानसिक चिंतन करता है, तब वह अपनी नाभि को केन्द्र मानकर सोचता है कि मैं पूर्व-पश्चिम आदि किस दिशा-विदिशा से आया हूँ। इस तरह चिंतन-मनन में योगों की प्रवृत्ति होने पर मन में एकाग्रता आती है और इससे आत्मा में विकास होने लगता है और चिंतन की
1. योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः
पातञ्जल योगदर्शन 1/2