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________________ श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध जानते-देखते हैं। परन्तु आत्म-प्रदेशों की अपेक्षा से तो वे भी एक देशव्यापी हैं, क्योंकि आत्म-प्रदेशों की अपेक्षा से आत्मा को सर्वव्यापी मानने से बन्ध एवं मोक्ष नहीं घट सकता। फिर तो वह संसार एवं मोक्ष में सर्वत्र स्थित रहेगा ही, तब उसे मुक्ति पाने के लिए त्याग-तप एवं धर्म-कर्म करने की आवश्यकता ही नहीं रह जायगी। अतः आत्मा सर्वव्यापक मानना युक्तिसंगत एवं अनुभवगम्य नहीं कहा जा सकता है। आत्मा को एक मानना भी यथार्थ से परे है, क्योंकि आत्मा को एक मान लेते हैं, तो फिर संसारी जीवों में जो कर्मजन्य विभिन्नता दृष्टिगोचर हो रही है, वह नहीं होनी चाहिए। संसार में परिलक्षित होने वाले अनन्त-अनन्त जीवों की आत्मा एक है, तो फिर कोई सुखी, कोई दुःखी, कोई निर्धन, कोई धनवान, कोई रोगी, कोई स्वस्थ, कोई कमजोर, कोई ताकतवर, कोई दुबला, कोई भारी शरीर वाला दिखाई देता है, यह भेद भी नहीं रहना चाहिए। फिर तो एक के सुखी होते ही सारा संसार सुखी हो जाना चाहिए एवं एक के दुःखी होते ही सर्वत्र दुःख की काली घटाएं छा जानी चाहिए। परन्तु ऐसा होता नहीं। व्यवहार में सबके सुख-दुःख अलग-अलग दिखाई देते हैं। एक के सुखी होने पर सारा संसार तो क्या, सारा गांव भी सुखी नहीं होता और एक के दुःखी होने पर सभी मुसीबत एवं वेदना के दलदल में नहीं धंसते। जगत् के सभी जीव अपने-अपने शुभ-अशुभ कर्म के अनुरूप सुख-दुःख का संवेदन करते हैं। अतः सभी आत्माएं एक नहीं, व्यक्तिशः विभिन्न हैं, अनेक हैं, अनंत हैं। ____ 'मैं आया हूँ' प्रस्तुत वाक्य से यह स्पष्ट कर दिया गया है कि जैनदर्शन एकांत रूप से आत्मा को एक एवं सर्वव्यापक नहीं मानता है। सभी आत्माएं पृथक्-पृथक् हैं, सबका अपना स्वतंत्र अस्तित्व है और लोक के एक देश में स्थित हैं। इसी कारण वह एक स्थान से दूसरे स्थान पर आ-जा सकती हैं। यदि आत्मा एक एवं सर्वव्यापक हो, तब तो एक आत्मा के चलने पर सभी चलने लगेंगी और एक के ठहरने पर सभी स्थित हो जाएंगी। इस तरह सांसारिक आत्माओं में होने वाला गमनागमन एवं हरकतें ही बंद हो जाएंगी और फिर 'मैं आया हूं' आदि शब्दों का प्रयोग ही व्यर्थ सिद्ध हो जाएगा। परंतु ऐसा होता नहीं, यह प्रयोग वास्तविक है और इसी से यह सिद्ध होता है कि आत्माएं अनन्त हैं और लोक के एक देश में स्थित हैं।
SR No.002206
Book TitleAcharang Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages1026
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size19 MB
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