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प्रथम अध्ययन, उद्देशक 1 जैनदर्शन ने भी संसार में स्थित सर्वज्ञ एवं सिद्धों की आत्मा को एक अपेक्षा से सर्वव्यापक माना है। वह अपेक्षा यह है कि जब केवल ज्ञानी के आयुष्य के अन्तिम भाग में वेदनीय कर्म सबसे अधिक और आयुष्य कर्म थोड़ा रह जाता है, तो उस समय उक्त दोनों कर्मों-वेदनीय और आयुष्य कर्म में सन्तुलन लाने के लिए वे केवली समुद्घात करते हैं। उस समय वे पहले समय में अपने आत्मप्रदेशों को दण्डाकार फैलाते हैं, दूसरे समय में उन्हें कपाट के आकार में बदलते हैं, तीसरे समय में मन्थनी के रूप में अपनी आत्मा को फैलाते हैं और चौथे समय में वे अपने आत्म-प्रदेशों को सारे लोक में फैला देते हैं। उनके आत्म-प्रदेश लोक के समस्त आकाश-प्रदेशों को स्पर्श कर लेते हैं, पांचवें समय में वे पुनः अपने आत्म-प्रदेशों को समेटने लगते हैं और उन्हें मंथनी की स्थिति में ले आते हैं, छठे समय में फिर से कपाट और सातवें समय में दंड के आकार में ले आते हैं एवं आठवें समय में अपने शरीर में स्थित हो जाते हैं। यह समुद्घात सभी सर्वज्ञ नहीं करते, वे ही केवल ज्ञानी करते हैं, जिनका वेदनीय आयुष्य कर्म से अधिक रह गया है, और उसे थोड़े से समय में ही क्षय करना है। इस तरह वे अपने आत्म-प्रदेशों को लोक में सर्वत्र फैला देते हैं और तुरन्त समेट भी लेते हैं। इस अपेक्षा से वे सर्वव्यापी भी हैं, परन्तु वस्तुतः वे भी सदा-सर्वदा के लिए सर्वव्यापी नहीं हैं। . सर्वज्ञ एवं सिद्धों को एक दूसरी अपेक्षा से भी सर्वव्यापक माना गया है। वह है-ज्ञान की अपेक्षा। क्योंकि वे तीनों लोक एवं तीनों काल में स्थित सभी द्रव्यों को. जानते-देखते हैं। लोक का एक प्रदेश भी ऐसा नहीं है, जिसे वे नहीं जानते हों। अस्तु, ज्ञान की अपेक्षा वे सर्वव्यापक हैं, अर्थात् समस्त लोक के द्रव्यों एवं भावों को 1. केवलीणं चत्तारि कम्मंसा अपलिक्खीणा भवंति, तंजहा वेयणिज्ज आउयं, णाम, गुत्तं
सव्वबहुए से वेयणिज्जे कम्मे भवइ, सव्वत्थोवे से आउए कम्मे भवइ, विसमं समं करेइ • बंधेणेहिं ठिईहि य, विसमसमकरणयाए बंधेणेहिं ठिईहि य एवं खलु केवली समोहणंति एवं खलु समुग्घायं गच्छन्ति।
-उववाई सूत्र, सिद्ध स्वरूप 40 पढमे समए दंडं करेइ, बिइए समए कवाडं करेइ, तइए समय मंथं करेइ, चउत्थे समए लोयं पूरइ, पंचमे समए लोयं पडिसाहरइ, छठे समए मंथं पडिसाहरइ, सत्तमे समए कवाडं साहरइ, अट्ठमे समये दंडं, पडिसाहरइ, तओ पच्छा सरीरत्थे भवइ।
-उववाई सूत्र, वही।