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श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध
ही है कि पूर्व-पश्चिम आदि उक्त दिशाओं में से किसी भी एक दिशा से आया हूँ। उक्त वाक्य से शास्त्रकार ने पुनः उन सभी दिशाओं की ओर समुच्चय रूप से संकेत कर दिया है। या यों भी कह सकते हैं कि 'उक्त समस्त दिशाओं के बीच किसी भी दिशा से' इस भाव को प्रस्तुत वाक्य से अभिव्यक्त किया है। ___'आगओ अहमंसि' वाक्य का अर्थ है-मैं आया हूँ। सूत्रकार ने उक्त पदों को उपन्यस्त करके जैनदर्शन की आत्मा-संबंधी मान्यता की ओर संकेत कर दिया है। जैनदर्शन आत्मा को अनन्त और लोक के एक देश में स्थित या संसारी आत्मा को शरीर-परिमाण मानता है। कुछ दार्शनिक आत्मा को एक और सर्वव्यापक मानते हैं। वस्तुतः ऐसा है नहीं; इसी बात को स्पष्ट करने के लिए यह कहा गया है कि 'मैं आया हूं, यदि ऐसा मान लिया जाए कि दुनिया में एक ही आत्मा है और वह सर्वव्यापक है तो “मैं किस दिशा से आया हूँ तथा किस दिशा या गति में जाऊंगा?" ऐसा प्रयोग घट नहीं सकता। फिर पुनर्जन्म एवं बंध-मोक्ष, सुख-दुःख आदि अवस्थाएं भी घटित नहीं हो सकेंगी। क्योंकि जब आत्मा सर्वव्यापक है तो वह नारक, देव, तिर्यञ्च, मनुष्य आदि सभी गतियों में स्थित है, फिर एक गति का आयुष्य पूर्ण करके दूसरी गति में जाने की बात एवं जन्म-मरण की बात युक्ति-संगत प्रतीत नहीं होती। जब वह सब जगह व्याप्त है, तब तो वह बिना मरे या जन्मे ही यत्र-तत्र-सर्वत्र जहां जाना चाहे, पहुँच जाएगा। न उसे गति करने की आवश्यकता है और न अन्य क्रिया करने की ही जरूरत है। परन्तु ऐसा होता नहीं है। व्यवहार में भी हम स्वयं चलकर एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाते-आते हैं। यही स्थिति पुनर्जन्म के सम्बन्ध में समझनी चाहिए। संसारी आत्मा कार्मण शरीर के साधन से एक गति से दूसरी गति की यात्रा तय करती है। इससे स्पष्टतः प्रमाणित होता है कि आत्मा सर्वव्यापक नहीं, देशव्यापक है। वह लोक के एक देश में स्थित है या यों भी कह सकते हैं कि संसारी आत्मा अपने शरीर-परिमाण स्थान में स्थित है और मुक्त आत्माएं सिद्धशिला में जो 45 लाख योजन की लम्बी-चौड़ी है और जिसकी एक करोड़ बयालीस लाख छत्तीस हजार तीन सौ उनपचास योजन के कुछ अधिक परिधि है, उसके एक गाऊ (कोस), अर्थात् दो मील के ऊपर के छठे हिस्से में लोक के अन्तिम प्रदेश को स्पर्श किए हुए-स्थित है। इस तरह सिद्ध या संसारी कोई भी आत्मा समस्त लोकव्यापी नहीं; बल्कि लोक के एक देश में स्थित है।