________________
24
श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध अणु दिसाओ वा-या अनुदिशा-विदिशा से। आगओ अहमंसि-मैं आया हूँ।
मूलार्थ-जैसे-मैं पूर्व दिशा से आया हूं या दक्षिण दिशा से आया हूं या पश्चिम एवं उत्तर दिशा से या ऊर्ध्व एवं अधोदिशा से या किसी एक दिशा-विदिशा से इस संसार में प्रविष्ट हुआ हूँ-आया हूँ। हिन्दी-विवेचन
आत्मा में अनन्त चतुष्क अर्थात् 1. अनन्त ज्ञान, 2. अनन्त दर्शन, 3. अनन्त सुख और 4. अनन्त वीर्य है। सिद्ध आत्माओं में ही नहीं, प्रत्युत संसार में स्थित प्रत्येक आत्मा में इन शक्तियों की सत्ता-अस्तित्व मौजूद है। फिर भी अनन्त काल से कर्मप्रवाह में प्रवहमान होने के कारण यह संसार में इधर-उधर परिभ्रमण करती रहती है, चार गति-चौरासी लाख जीवयोनियों में घूमती-भटकती है-कभी ऊर्ध्व दिशा में उड़ान भरती है, तो कभी अधोदिशा की ओर प्रयाण करती है। कभी पूर्वदिशा की ओर बढ़ती है, तो कभी अस्ताचल-पश्चिमदिशा की ओर जा पहुँचती है। कभी उत्तरदिशा की तरफ गतिशील होती है, तो कभी दक्षिण दिशा का रास्ता नापती है। इस तरह कर्मबद्ध आत्मा संसार की इन सब दिशा-विदिशाओं में घूमती फिरती है। इस भव-भ्रमण का मूल कारण कर्मबन्धन है और कर्मबन्धन का मूल-राग-द्वेष हैं।' जब तक आत्मा में राग-द्वेष की परिणति है, तब तक वह कर्मबन्धन से मुक्त नहीं हो सकती। क्योंकि राग-द्वेष कर्मरूपी वृक्ष का बीज है, मूल है। जब तक बीज या मूल सुरक्षित है, स्वस्थ है, तब तक वृक्ष धराशायी नहीं हो सकता। यदि पूर्व फलित शाखा-प्रशाखाओं को काट भी दिया गया, तब भी मूल के सद्भाव में वृक्ष का पूर्णतया नाश-विनाश नहीं हो सकता। मूल हरा-भरा है तो वह पुनः अंकुरित, पल्लवित, पुष्पित एवं फलित हो उठेगा। यही स्थिति कर्मवृक्ष की है। पूर्व कर्म अपना फल देकर नष्ट हो जाते हैं, क्षय हो जाते हैं, परन्तु उनका मूल रागद्वेष मौजूद रहता है, इससे उनका समूलतः नाश नहीं होता। पूर्व कर्मों की निर्जरा होती है तो नए कर्मों का बन्ध हो जाता है। इस तरह एक के बाद दूसरा प्रवाह प्रवहमान ही रहता है। अस्तु, कर्म के मूल रागद्वेष का क्षय किए बिना कर्मवृक्ष का समूलतः नाश नहीं होता और उसका पूर्णतः नाश हुए बिना आत्मा भव-भ्रमण के चक्कर से छुटकारा नहीं पा सकती। 1. रागो या दोसो विय कम्मबीयं ।
उत्तराध्ययन-32