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प्रथम अध्ययन, उद्देशक 1
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आस्तिक माने जाने वाले सभी दार्शनिकों का विश्वास है कि आत्मा ज्ञानस्वरूप है, परन्तु ज्ञान को स्व-प्रकाशक मानने के संबंध में दार्शनिकों में एकरूपता परिलक्षित नहीं होती। कतिपय दार्शनिक ज्ञान को स्व-प्रकाशक नहीं, पर-प्रकाशक मानते हैं। उनका कहना है कि आत्मा अपने ज्ञान से स्वयं को नहीं जानता, परन्तु पर को जानता है, जैसे-आंख दुनिया के दृश्यमान पदार्थों का अवलोकन करती है परन्तु अपने आप को नहीं देखती। दीपक सब पदार्थों को प्रकाशित करता है, परन्तु उसके नीचे अंधेरा ही बना रहता है-'दिए तले अन्धेरा' की कहावत लोक प्रसिद्ध है। इसी तरह ज्ञान भी अपने से इतर सभी द्रव्यों को, पदार्थों को देखता-जानता है। परन्तु अपना परिज्ञान उसे नहीं होता। अपने आपको जानने के लिए इतर ज्ञान की अपेक्षा रखता है।
परन्तु जैनदर्शन की मान्यता है कि ज्ञान-स्व-प्रकाशक भी है और पर-प्रकाशक भी। जो ज्ञान अपने आपको नहीं जानता है, वह दूसरे पदार्थ का भी अवलोकन नहीं कर सकता। वही ज्ञान अन्य द्रव्यों को भली-भांति देख सकता है जो अपने आपको भी देखता है। जैसे दीपक का प्रकाश अन्य पदार्थों के साथ स्वयं को भी प्राकशित करता है। ऐसा नहीं होता कि दीपक के अतिरिक्त कमरे में स्थित अन्य सभी पदार्थ तो दीपक के उजाले में देख लें और उस जलते हुए दीपक को देखने के लिए दूसरा दीपक लाएं। जो ज्योतिर्मय दीपक सभी पदार्थों को प्रकाशित करता है, वह अपने आपको भी प्रकाशित करता है। उसे देखने के लिए दूसरे प्रकाश को लाने की आवश्यकता नहीं पड़ती। इस तरह आत्मा अपने ज्ञान से स्वयं को भी जानता है और उससे स्वेतर द्रव्यों का भी परिज्ञान करता है। यों कहना चाहिए कि वह अपने को देखकर ही इतर द्रव्यों या पदार्थों को देखता है। ___ हम सदा-सर्वदा देखते हैं कि बहिनें भोजन तैयार करके दूसरों को परोसने-खिलाने के पहले स्वयं चख लेती हैं। यदि उन्हें स्वादिष्ट लगता है, तो वे समझ लेती हैं कि भोजन ठीक बना है, परिवार के सभी सदस्यों को अच्छा लगेगा। यदि ज्ञान स्वसंवेदक या स्वप्रकाशक नहीं होता, तो बहिनों को यह ज्ञान कैसे होता है कि यह भोजन सबको स्वादिष्ट लगेगा। परन्तु ऐसा संवेदन प्रत्यक्ष में होता है और हम प्रतिदिन देखते हैं। इससे स्पष्ट होता है कि ज्ञान स्वप्रकाशक भी है। वह भोजन को चखकर