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श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध
___10. लोकसंज्ञा-'अपुत्रस्य गतिर्नास्ति' आदि लोक-प्रचलित मान्यताओं पर विश्वास करना तथा उनके अनुसार अपनी धारणा बना लेना।
11. सुखसंज्ञा-इन्द्रियों एवं मनोऽनुकूल विषयों का उपभोग करना एवं उसमें आनन्द की अनुभूति करना। _12. दुःखसंज्ञा-इन्द्रिय एवं मन के प्रतिकूल विषयों की प्राप्ति होने पर दुःखानुभूति करना।
13. मोहसंज्ञा-मोहनीय कर्म के उदय से विषय-वासना एवं कषायों में आसक्त रहना। ____14. विचिकित्सासंज्ञा-मोहनीय एवं ज्ञानावरणीय कर्म के उदय से सर्वज्ञ द्वारा प्ररूपित धर्म एवं तत्त्वों में शंका-संदेह करना।
15. शोकसंज्ञा-मोहनीय कर्म के उदय से इष्ट वस्तु के न मिलने या उसका वियोग होने पर तथा अनिष्ट वस्तु का संयोग पाकर रोना, पीटना, विलाप आदि करना।
16. धर्मसंज्ञा-मोहनीय कर्म के क्षयोपशम से आगार-गृहस्थ धर्म या अनगार-साधु धर्म को स्वीकार करना, संयम-मार्ग में या त्याग-पथ पर गतिशील
होना।
ज्ञानसंज्ञा के भी 5 भेद किए गए हैं
1. मतिज्ञान-इन्द्रिय और मन की सहायता से योग्य क्षेत्र में स्थित वस्तु को जानना-पहचानना।
2. श्रुतज्ञान-वाच्य-वाचक संबंध द्वारा शब्द से संबंधित अर्थ का परिज्ञान प्राप्त करना।
3. अवधिज्ञान-इन्द्रिय और मन की सहायता के बिना मर्यादित क्षेत्र में स्थित रूपी द्रव्यों को जानना-देखना।
4. मनःपर्यवज्ञान-इन्द्रिय और मन के सहयोग बिना मर्यादित क्षेत्र में स्थित संज्ञी पंचेन्द्रिय जीवों के मन के भावों को जानना।
5. केवलज्ञान-मति आदि चारों ज्ञानों की अपेक्षा के बिना तीनों लोक में स्थित द्रव्यों एवं त्रिकालवर्ती भावों को युगपत् हस्तामलकवत् जानना-देखना।