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________________ प्रथम अध्ययन, उद्देशक 1 संज्ञाओं का अभाव मान लिया जाए तो फिर आत्मा में चेतनता या सजीवता नाम की कोई चीज़ रह ही नहीं जायेगी। अस्तु, संज्ञा का सर्वथा निषेध करना आत्मतत्त्व की ही सत्ता नहीं मानता है और यह बात सिद्धान्त से सर्वथा विपरीत है। इसलिए सूत्रकार ने 'असण्णा' का प्रयोग न करके ‘णो सण्णा' का प्रयोग किया, जो सर्वथा उचित, युक्तियुक्त, न्याय-संगत एवं आगमानुसार है। __ प्रस्तुत सूत्र में प्रयुक्त ‘सण्णा' शब्द का अर्थ संज्ञा होता है। संज्ञा चेतना को कहते हैं और वह अनुभवन और ज्ञान के भेद से दो प्रकार की है। अनुभवन संज्ञा के सोलह भेद हैं या यों कहिए कि जीव को सोलह तरह के अनुभूति होती है... 1. आहारसंज्ञा-क्षुधावेदनीय कर्म के उदय से आहार-भोजन करने की इच्छा होना। ___2. भयसंज्ञा-भयमोहनीय कर्म के उदय से खतरे का वातावरण देख, जान कर या खतरे की आशंका से त्रास एवं दुःख का संवेदन करना या भयभीत होना। ____3. मैथुनसंज्ञा-वेदोदय से विषयेच्छा को तृप्त करने की या मैथुन सेवन की अभिलाषा होना। 4. परिग्रहसंज्ञा-कषायमोहनीय के उदय से भौतिक पदार्थों पर आसक्ति, ममता एवं मूर्छा भाव का होना। 5. क्रोधसंज्ञा-कषायमोहनीय कर्म के उदय से विचारों में एवं वाणी में उत्तेजना या आवेश का आना। 6. मानसंज्ञा-कषायमोहनीय कर्म के उदय से अहंभाव, गर्व या घमंड का अनुभव करना। 7. मायासंज्ञा-कषायमोहनीय कर्म के उदय से छल-कपट करना। 8. लोभसंज्ञा-कषायमोहनीय कर्म के उदय से भौतिक पदार्थों, विषय-वासना एवं भोगोपभोग के साधनों को प्राप्त करने की लालसा बनाए रखना, संग्रह की कामना को बढ़ाते रहना। ___9. ओघसंज्ञा-जीव की अव्यक्त चेतना, जो ज्ञानावरणीय कर्म के अल्पक्षयोपशम के कारण उत्पन्न होती है।
SR No.002206
Book TitleAcharang Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages1026
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size19 MB
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