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श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध तीर्थंकर हो चुके हैं और भविष्य काल में अनन्त तीर्थंकर होते रहेंगे और अपने समय में सभी तीर्थंकर उस त्रैकालिक सत्य का अर्थ रूप से उपदेश देते हैं। अतः उपदेष्टा की अपेक्षा से उस समय के तीर्थंकर आगम के प्ररूपक कहे जाते हैं। जैसे वर्तमान में उपलब्ध आगम के उपदेष्टा भगवान महावीर हैं। इस दृष्टि से आगम नित्य हैं, सादि हैं। इस तरह आगम नित्य भी हैं और अनित्य भी।
प्रस्तुत सूत्र में आर्य सुधर्मा स्वामी, जम्बू अनगार से बोले-हे आयुष्मन् जम्बू! मैंने सुना है कि उस भगवान् ने इस प्रकार प्रतिपादन किया है। इस सूत्र को सुन-पढ़कर यह प्रश्न पूछा जा सकता है कि भगवान् ने क्या प्रतिपादन किया था? किस बात को अभिव्यक्त किया? प्रस्तुत प्रश्न का समाधान देते हुए सूत्रकार ने कहा
मूलम्-इहमेगेसिं णो सण्णा भवइ॥2॥ छाया-इहैकेषां नो संज्ञा भवति।
पदार्थ-इहं-इस संसार में। एकेसिं-किन्हीं जीवों को। णो-नहीं। सण्णा-संज्ञा-ज्ञान। भवइ-होता है।
मूलार्थ-इस संसार में किन्हीं जीवों को अथवा अनेक जीवों को ज्ञान नहीं होता है। हिन्दी-विवेचन
आचारांग को आरम्भ करते हुए आर्य सुधर्मा स्वामी ने यह कहा था कि हे आयुष्मन् जम्बू! मैंने सुना है कि उस भगवान ने ऐसा कहा है। क्या कहा है? इस बात को स्पष्ट करते हुए प्रस्तुत सूत्र में कहा गया कि भगवान ने बताया हे कि इस प्राणि-जगत में परिभ्रमण करने वाले अनेकानेक जीव ऐसे हैं कि जिन्हें ज्ञान नहीं होता। यह प्रस्तुत सूत्र का फलितार्थ है।
'इह' पद 'इस' अर्थ का बोधक है। यह पद सर्वनाम होने से संसार और क्षेत्र, प्रवचन, आचार एवं शस्त्र परिज्ञा आदि शब्दों का इसके साथ अध्याहार किया जाता है, क्योंकि सर्वनाम सदा संज्ञा के स्थान में प्रयुक्त होता है। जब ‘इह' पद के साथ संसार शब्द का अध्याहार किया जाता है, तो उक्त पद का संबंध ‘एगेसिं' पद के साथ करना चाहिए। परन्तु यदि इस पद के साथ क्षेत्र, प्रवचन आदि शब्दों का