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प्रथम अध्ययन, उद्देशक 1
अध्याहार किया जाए तो फिर इस पद का संबंध प्रथम सूत्र के ‘अक्खाय' इस क्रिया के साथ जोड़ना चाहिए। इस तरह संबंध के भेद से अर्थ में भी भेद हो जाता है। जब प्रस्तुत पद का संबंध ‘एगेसिं' पद के साथ जोड़ेंगे तो इसका अर्थ होगा कि “संसार में किन्हीं जीवों को संज्ञा-ज्ञान नहीं होता" और जब इसका संबंध ‘अक्खायं' पद के साथ होगा तो इसका अर्थ होगा कि “हे आयुष्मन् जम्बू! उस भगवान अर्थात् भगवान महावीर ने इस क्षेत्र, प्रवचन, आचार एवं शस्त्र-परिज्ञा में कहा है कि कई एक जीवों को ज्ञान नहीं होता।" इस तरह 'इहं' पद का ‘एगेसिं' और 'अक्खायं' पद के साथ क्रमशः संबंध-भेद से अर्थ-भेद भी प्रमाणित होता है।
__क्षेत्र' शब्द उस स्थान का परिबोधक है, भारतवर्ष या भारत में भी जिस स्थान पर भगवान ने प्रस्तुत प्रवचन किया था। भगवान-तीर्थंकरों के उपदेश को प्रवचन कहते हैं। प्रवचन का सीधा-सा अर्थ होता है-श्रेष्ठ वाणी या विशिष्ट महापुरुषों द्वारा व्यवहृत वचन। 'आचार' शब्द आचारांग सूत्र का परिचायक है और शस्त्र-परिज्ञा आचारांग सूत्र का प्रथम अध्ययन है। : उक्त चारों शब्दों का परस्पर संबंध भी है, क्योंकि प्रवचन किसी क्षेत्र-विशेष में ही दिया जाता है। अतः सर्वप्रथम क्षेत्र का उल्लेख किया गया और उसके अनन्तर प्रवचन का नाम निर्देश किया गया। वह प्रवचन क्या था? इसका समाधान आचार अर्थात् आचारांग इस शब्द से किया गया और आचारांग सूत्र में भी प्रस्तुत वाक्य किस अध्ययन में कहा गया है, इस बात को स्पष्ट करने के लिए 'शस्त्रपरिज्ञा' शब्द का कथन किया गया। इस तरह चारों पदों का एक-दूसरे पद के साथ संबंध स्पष्ट परिलक्षित होता है।
‘एगेसिं' यह पद 'किन्हीं जीवों को' इस अर्थ का संसूचक है। इस पद को ‘णो सण्णा भयइ' पदों के साथ संबद्ध करने पर इसका अर्थ होता है कि किन्हीं जीवों को ज्ञान नहीं होता। आध्यात्मिक विकासक्रम के नियमानुसार आत्मा में ज्ञानावरणीय कर्म के क्षयोपशम के अनुरूप ज्ञान का विकास होता है। अतः जिन जीवों के ज्ञानावरणीय कर्म का जितना अधिक क्षयोपशम होता है, उनके ज्ञान का विकास भी उतना ही अधिक होता है और ज्ञानावरणीय कर्म का जितना अधिक आवरण हटाएंगे, उनका ज्ञान उतना ही अधिक निर्मल होगा। जिन जीवों का ज्ञानावरणीय कर्मगत क्षयोपशम