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________________ प्रथम अध्ययन, उद्देशक 1 आगम अनादि काल से हैं, उनका उद्गम स्थान ढूंढ़ना दुष्कर ही नहीं, असंभव है और वर्तमान में विद्यमान आगम के उपदेष्टा की दृष्टि से सोचते हैं, तो उसकी आदि है। क्योंकि वर्तमान में उपलब्ध आगम के अर्थरूप से उपदेष्टा भगवान महावीर हैं। उनके प्रवचन को नव गणधरों ने सूत्ररूप से गूंथा था। क्योंकि आगम में ऐसा बताया गया है कि भगवान महावीर के ग्यारह गणधर और नव गण थे। अन्य गणधरों की शिष्य-परम्परा का प्रवाह आगे चला नहीं। भगवान महावीर के बाद पंचम गणधर सुधर्मा स्वामी की ही शिष्य परम्परा चालू रही। अतः वर्तमान में सुधर्मा स्वामी द्वारा सूत्ररूप में रचित आगम ही उपलब्ध होते हैं। अतः प्रस्तुत आगम का भगवान महावीर ने अर्थ रूप से उपदेश दिया था, और आर्य सुधर्मा स्वामी ने उसे सूत्र रूप से गूंथा था। _इस तरह 'अक्खाय' इस पद से आगमों की नित्यता को प्रकट किया है। परन्तु यह बात ध्यान में रखनी चाहिए कि आगम कूटस्थ नित्य नहीं हैं। क्योंकि हम इस बात को पहले ही बता चुके हैं कि जैन दर्शन प्रत्येक वस्तु पर अनेकान्त या स्याद्वाद की दृष्टि से सोचता-विचारता है। यहां एकान्तवाद को कोई स्थान नहीं है। क्योंकि प्रत्येक वस्तु अनेक धर्म युक्त है। उसमें उत्पाद, व्यय, और धौव्य तीनों अवस्थाएं स्थित हैं। इसमें विरोध जैसी कोई बात नहीं है। हम प्रत्यक्ष रूप से देखते हैं, अनुभव करते हैं कि स्वर्ण को गला कर उसका कंगन बना लेते हैं, फिर कंगन को तुड़वाकर बटन या अँगूठी या और कुछ आभूषण बना लेते हैं। इस तरह प्रत्येक बार वस्तु के स्वरूप में परिवर्तन हो जाता है। एक स्वरूप का विनाश हाता है तो दूसरे स्वरूप का निर्माण होता है, परन्तु पूर्व एवं उत्तर की दोनों अवस्थाओं में स्वर्ण अपने रूप में सदा स्थिर रहता है। यही स्थिति प्रत्येक वस्तु की है। द्रव्य रूप से प्रत्येक वस्तु सदा स्थित रहती है तो पर्याय रूप से उसमें सदा परिवर्तन होता रहता है। इसलिए जब किसी वस्तु को नित्य कहा जाता है, तो उसका अभिप्राय यह है कि वह परिणामी नित्य है, उत्पाद-व्यय-ध्रौव्ययुक्त है। यही बात आगम के संबंध में समझनी चाहिए। द्रव्य रूप से आगम नित्य हैं, ध्रुव हैं, अनादि से विद्यमान हैं। परन्तु पर्याय रूप से अनित्य हैं। क्योंकि उस त्रैकालिक सत्य का अभिव्यक्त करने वाले अनन्त समय में अनन्त 1. उत्पाद-व्यय-ध्रौव्ययुक्तं सत्। -तत्त्वार्थ सूत्र 5/30
SR No.002206
Book TitleAcharang Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages1026
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size19 MB
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