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________________ 16 श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध तीनों काल के भावों को समान रूप से जानते-देखते हैं। अतः उनके द्वारा की गई सैद्धान्तिक प्ररूपणा में कोई भेद नहीं होता। सभी तीर्थंकरों के उपदेश की एकरूपता का एक उदाहरण प्रस्तुत सूत्र में भी मिलता है। उसमें लिखा है कि “जो अरिहन्त भगवान पहले हो चुके हैं, जो भी वर्तमान में हैं और जो भविष्य में होंगे, उन सभी का एक ही उपदेश-आदेश है कि किसी भी प्राणी, भूत, जीव, सत्त्व की हिंसा मत करो; उनके ऊपर अपनी सत्ता मत जमाओ, उन्हें परतन्त्र एवं गुलाम मत बनाओ और उनको संतप्त मत करो, यही धर्म ध्रुव है, नित्य है, शाश्वत है और विवेकशील पुरुषों ने बताया है।" ___जब व्यावहारिक दृष्टि से यह देखते हैं कि वर्तमान में उपलब्ध आगमों का आविर्भाव किस रूप में हुआ? किसने किया? कब किया? और कैसे किया तो जैनागमों की आदि भी स्पष्ट रूप से सामने आ जाती है। इसलिए कहा गया कि “तप-नियम और ज्ञानमय वृक्ष के ऊपर आरूढ़ होकर अनन्त ज्ञानी तीर्थंकर-केवली भगवान भव्य जनों के बोध के लिए ज्ञान-कुसुम की वृष्टि करते हैं। गणधर अपने बुद्धि पटल में उन समस्त कुसुमों का झेलकर द्वादशांग रूप प्रवचन माला गूंथते हैं।" इस तरह "जैनागम कर्तृत्व रहित अनादि अनन्त भी हैं और कर्ता की अपेक्षा से आदि सहित भी है।" का इस सूत्र में सुन्दर समन्वय हो जाता है और आचार्य हेमचन्द्र का यह विचार पूर्णतया चरितार्थ होता है “आदीपमाव्योम समस्वभावं, स्याद्वादमुद्रानतिभेदि वस्त"3 इससे स्पष्ट हो गया कि स्याद्वाद की भाषा में विरोध खड़ा होने को कहीं भी अवकाश नहीं है। अनन्त तीर्थंकरों में रही हुई केवल ज्ञान की एकरूपता के कारण 1. आचारांग, श्रु. 1, अ. 4 सू. 126 2. “तवनियमनाणरुक्खं आरूढ़ो केवली अमियनाणी, तो सुयनाणवुद्धिं भवियजणविबोहणट्ठाए ॥89॥ तं बुद्धिमएण पडेण गणहरा गिहिउं निरवसेसे, तित्थयरभासियाइं गंथंति तओ पवयणट्ठ॥90॥ 3. अन्ययोगव्यवच्छेदिका, श्लोक 5. -आवश्यकनियुक्तिः
SR No.002206
Book TitleAcharang Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages1026
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size19 MB
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