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________________ श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध अतः श्रुत ज्ञान-प्राप्ति के इच्छुक साधक को द्रव्य और भाव दोनों तरह से गुरु के निकट रहना चाहिए। ‘आवसंतेणं' पद इन्हीं भावों का परिचायक है। ___ 'भगवया' यह पद भगवत् शब्द का तृतीयान्त प्राकृत रूप है। इसका अर्थ है-भगवान ने। भगवान शब्द भग से बनता है। भग शब्द की व्याख्या करते हुए एक आचार्य लिखते हैं "ऐश्वर्यस्य समग्रस्य, रूपस्य यशसः श्रियः। ज्ञानवैराग्ययोश्चापि, षण्णां भग इतीङ्गना॥” अर्थात्-सम्पूर्ण ऐश्वर्य, रूप, यश, कीर्ति, श्री, ज्ञान, और वैराग्य इन छह संपदाओं के समुदाय को भग कहते हैं। अतः उक्त संपदाओं से जो युक्त है; उसे भगवान कहते हैं . “भगः-ऐश्वर्यादिषडर्थात्मकः सोऽस्यास्तीति भगवान्।" 'अक्खायं' यह क्रिया पद है। इसका अर्थ है-कहा। इससे स्पष्ट होता है कि आचारांग सूत्र भगवान के द्वारा कहा गया है। इससे दो बातें स्पष्ट होती हैं। एक तो यह कि आगम किसी व्यक्ति द्वारा कहे गए हैं, जिसका विस्तृत विवेचन हम पीछे के पृष्ठों में कर आए हैं। दूसरी बात यह सामने आती है कि आगम अनादि काल से चले आ रहे हैं। किसी तीर्थंकर भगवान ने इनकी सर्वथा अभिनव रचना नहीं की। उन्होंने तो अनादि काल से चले आ रहे आगमों का अर्थ रूप से कथन मात्र किया है। अतः इस दृष्टि से आगम सादि भी हैं और अनादि एवं कृतत्व-रहित भी हैं। उनके सादित्व पर हम विचार कर चुके हैं। यहां आगमों के अकृतत्व एवं अनादित्व पर विचार करेंगे। परन्तु यह कथन भी अपेक्षा से है, ऐसा समझना चाहिए। क्योंकि जैन विचारकों की भाषा स्याद्वादमय रही है। उन्होंने प्रत्येक वस्तु एवं प्रत्येक विचार पर स्याद्वाद की भाषा में सोचा-विचारा है। आगम के सादित्व-अनादित्व अर्थात् आगम के मूल स्रोत की आदि निश्चित तिथि है या नहीं? दोनों पर गहराई से चिन्तन किया है। आगमों में यह बात स्पष्ट रूप से कही गई है कि आगम अनादि भी है। क्योंकि ऐसा कोई समय नहीं रहा है, नहीं है और नहीं रहेगा, जबकि द्वादशांगभूत गणिपिटक नहीं था,
SR No.002206
Book TitleAcharang Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages1026
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size19 MB
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