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प्रथम अध्ययन, उद्देशक 1
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“आउसं! तेणं" इस पाठ के स्थान पर कुछ प्रतियों में ‘आमुसंतेणं' तथा 'आवसंतेणं' ये दो पाठान्तर भी मिलते हैं। इनके अर्थ पर भी विचार कर लेना अप्रासंगिक नहीं होगा। आमुसंतेणं' इस पद की संस्कृत छाया 'आमृशता' और 'आवसंतेण' पद की संस्कृत छाया 'आवसता' होती है। इन उभय शब्दों का सम्बन्ध 'मे' पद से है। या यों कहिए कि ये दोनों पद आर्य सुधर्मा स्वामी के विशेषण हैं। टीकाकार श्री शीलांकाचार्य ने दोनों पदों का अर्थ इस प्रकार किया है-'मया आमुसंतेणं' आमृशता (स्पृशता) भगवत्-पादारविन्दम्, आवसन्तेणं-आवसता वा तदन्तिके।" ____ अर्थात्-भगवान महावीर के चरणों का स्पर्श करते हुए मैंने या भगवान महावीर के पास निरन्तर निवास करते हुए मैंने।
उक्त दोनों पाठान्तरों से श्रुत ज्ञान की प्राप्ति एंव उसकी सफलता के लिए शिष्य के जीवन में जिन गुणों एवं संस्कारों का सद्भाव होना चाहिए, उनका भली-भांति बोध हो जाता है। सबसे पहले श्रुतग्राही शिष्य के जीवन में विनम्रता एवं गुरु के प्रति प्रगाढ़ श्रद्धा-भक्ति होनी चाहिए। यदि शिष्य का जीवन-दीप विनय एवं श्रद्धा के स्नेह-तेल से खाली है, तो उसमें श्रुतज्ञान की प्रकाशमान ज्योति जग नहीं सकती, उसके जीवन को सम्यक् ज्ञान के प्रकाश से आलोकित नहीं कर सकती। अतः श्रुत ज्ञान को पाने के लिए गुरु के प्रति आस्था एवं सर्वस्व समर्पण की भावना तथा उनकी सेवा-शुश्रूषा में संलग्न रहने की वृत्ति होनी चाहिए। ‘आमुसंतेणं' यह इन्हीं आदर्श एवं समुज्ज्वल भावों का संसूचक है। .'' श्रुतज्ञान की प्राप्ति के लिए गुरु चरण सेवा ही पर्याप्त नहीं है, परन्तु उनके निकट में रहना भी आवश्यक है। गुरु के निकट में स्थित रहना दो अर्थों में प्रयुक्त होता है-(1) सदा गुरु के पास या उनके सामने ही रहना, अतः समय पर उनकी सेवा कर सके, उन्हें किसी काम के लिए इधर-उधर से आवाज देकर न बुलाना पड़े। (2) उनकी आज्ञा में विचरण करना। अपनी प्रवृत्ति उनके विचारानुसार रखना। क्षेत्र से दूर रहते हुए सदा उनके पथ का अनुगमन करना भी उनके निकट में बसना है। इसी भावना को ध्यान में रखकर शिष्य को अन्तेवासी भी कहा है। अन्तेवासी का यह अर्थ नहीं है कि वह सदा उनके साथ या पास में ही रहे। आवश्यकता पड़ने पर वह क्षेत्र से दूर भी जा सकता है, परन्तु उनके विचारों एवं आज्ञा से दूर नहीं जाता।