________________
श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध
वृत्तिकार ने भी कुछ विचार प्रस्तुत किए हैं। इस दिशा में वृत्तिकार का चिन्तन भी मननीय एवं विचारणीय होने से आगे की पंक्तियों में दे रहे हैं
12
“आउसंतेणं” त्ति प्राकृतत्वेन तिव्यत्ययादाजुषमाणेन श्रवणविधिमर्यादया गुरून् सेवमानेन, अनेनाप्येतदाह - विधिनैवोचितदेशस्थेन गुरुसकाशात् श्रोतव्यं न तु यथा-कथंचिद् गुरुविनयभीत्या गुरुपर्षदुत्थितेभ्यो वा सकाशात् यथोच्यते--परिसुट्ठियाणं पासे सुणेइ, सो विणय- परिभंसि ।”
अर्थात्–‘आउसंतेणं' यह पद प्राकृत भाषा में तिङ्व्यत्यय ( परस्मैपद का आत्मनेपद और आत्मनेपद का परस्मैपद) होने से परस्मैपद है, किन्तु संस्कृत में इस पद की आत्मनेपदी ‘आजुषमाणेन’ यह छाया बनती है। आयुष्मान् का अर्थ है - सुनने की पद्धति का पालन करते हुए गुरु की सेवा करना। सुनने की पद्धति के परिपालन का अभिप्राय यह है कि गुरुदेव से शास्त्र या हितकारी उपदेश सुनते समय शिष्य न तो गुरु से अधिक दूर बैठे और न अति निकट ही बैठे, परन्तु उचित स्थान में बैठकर एकाग्रचित्त से उपदेश एवं शास्त्र को सुने । अधिक दूर बैठने से भली-भांति सुनाई नहीं पड़ेगा और अति निकट बैठने पर हाथ आदि अंगों के संचालन से उनके शरीर को आघात लग सकता है, अतः शिष्य को ऐसे स्थान में बैठकर शास्त्र एवं उपदेश का श्रवण करना चाहिए, जहां से अच्छी तरह सुनाई भी पड़ सके और उनकी आशाता भी न हो। दूसरी बात यह है कि गुरुदेव की सभा से उठकर आने वाले लोगों से शास्त्र न सुने, परन्तु स्वयं गुरुदेव के सम्मुख उपस्थित होकर उनसे सुने । कभी-कभी कुछ अविनीत शिष्य ऐसा सोच-विचार कर कि गुरु के पास जाकर सुनेंगे तो उनका विनय करना होगा, अतः उनसे सुनकर जो व्यक्ति आ रहें हैं, उनसे ही जानकारी कर लें। यह सोचना उपयुक्त नहीं है। इससे जीवन में प्रमाद बढ़ता है, विनम्र भाव का नाश होता है- जो धर्म एवं संयम का मूल है। इसी बात को ध्यान में रखकर वृत्तिकार ने 'आयुष्मन्' पद देकर गुरु की सभा से आने वाले व्यक्तियों से ही सीधा शास्त्र एवं उपदेश भी सुनने की वृत्ति का निषेध किया है और शिष्य को प्रेरित किया है कि वह विनम्र भाव से गुरु-चरणों में बैठ कर ही शास्त्र का श्रवण करे। ऐसी विनम्र वृत्ति वाले शिष्य के लिए ही 'आयुष्मन् ' पद का प्रयोग किया है ।
1. पर्षदुत्थितानां पार्श्वे शृणोति, स विनयपरिभ्रंशी ।