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श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध
स्थानाङ्ग सूत्र - भगवान महावीर द्वारा उपदिष्ट द्वादशांगी वाणी में अंग शास्त्र । स्थिति बन्ध-बँधने वाला कर्म कितने समय की आयु वाला है, अर्थात् बँधने वाले कर्म के काल या समय की मर्यादा ।
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स्थूलीभद्र - आचार्य भद्रबाहु के शिष्य, जिन्होंने आचार्य भद्रबाहु से 10 पूर्व का अध्ययन किया था। इस युग के ये अन्तिम 10 पूर्वधर माने जाते हैं ।
स्पृष्ट- जो स्पर्शित हो रहे हैं।
स्याद्वाद-अनेक नयों-अपेक्षाओं से युक्त भाषा |
स्व-प्रकाशक - जो ज्ञान अपने स्वरूप को प्रकाशित करता - जानता है । स्वमति-अपनी बुद्धि, अपने विचार और अपना ज्ञान ।
स्वर्ग-मर्त्य लोक से ऊपर एक लोक विशेष, जहां आत्मा मर्त्य लोक में किए हुए शुभ कर्म के फल का उपभोग करती है अथवा देवताओं के रहने का स्थान विशेष |
स्वलिंगि - जैन साधु के वेश में ।
स्वसंवेदक—अपने ज्ञान का स्वयं को संवेदन- अनुभव होना ।
स्वेतर - अपने से अतिरिक्त - भिन्न पदार्थ ।
स्वानुभूति - - आत्मा को अपने ज्ञान से अपने स्वरूप का अनुभव होना । अवगाहना - शरीर की ऊंचाई |
शस्त्र-परिज्ञा-शस्त्रों की भयंकरता को जानकर, उसका परित्याग करना । शाक्य - बौद्ध भिक्षु ।
शीतयोनि- - वह उत्पत्ति स्थान, जिसमें शीत-ठंडा स्पर्श पाया जाता है । शीतल लेश्या - एक शक्ति, जिसके द्वारा साधक तेजोलेश्या से प्रक्षिप्त जलाने वाले पुद्गलों को शान्त-प्रशान्त कर देता है ।
शीतोष्ण योनि - जिस उत्पत्ति स्थान का स्पर्श ठण्डे और गर्मपन से मिश्रित है । शील - संयम; महाव्रतों का परिपालन, तीन गुप्ति का आराधन, 5 इन्द्रिय एवं कषायों का निग्रह, ब्रह्मचर्य ।