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श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध
वायु-काय-जिन जीवों ने हवा के शरीर को धारण कर रखा है। विक्षिप्त-पागल। . विचिकित्सा संज्ञा-सर्वज्ञोपदिष्ट धर्म एवं तत्त्वों में संशय करना।
वितण्डावाद-विचार-चर्चा के समय एक-दूसरे पक्ष को परास्त करने के लिए तर्क के साथ छल-कपट का सहारा लेकर या हो-हल्ला मचाकर प्रतिपक्षी को परास्त करने का प्रयत्न करना।
विरूपरूप-बीभत्स एवं अमनोज्ञ स्वरूपवाला विवृत्त-योनि-जो उत्पत्ति स्थान अनावृत है, खुला है, स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है।
विहार-पैदल घूमना, पदयात्रा।
वेदनीय कर्म-जिस कर्म के उदय से जीवन को सुख-दुःख का संवेदन होता हो।
वेद-वैदिक-ब्राह्मण परम्परा के द्वारा मान्य शास्त्र।
वेदवित्-तत्त्वों के यथार्थ स्वरूप को बताने वाले आगम को वेद कहते हैं और उन आचाराङ्गादि आगमों को जाननेवाला वेदवित् ।
वेदोदय-स्त्री, पुरुष या नपुसंक वेद का उदय-अस्तित्व में आना।
वैक्रिय-वह शरीर जिसमें हड्डी-मांस आदि नहीं होता और जो आवश्यकतानुसार विभिन्न रूपों एवं आकारों में बदला जा सकता है। वह नारकी और देवों में पाया जाता है।
वैक्रियलब्धि-एक शक्ति, जिसके द्वारा साधक अपनी इच्छानुसार विभिन्न रूप बना सकता है।
वैदिक दर्शन-वेद एवं श्रुति-स्मृति को प्रमाण मानने वाला दर्शन, वेदान्त। . वैदिक परम्परा-जो दर्शन या संप्रदाय वेदों को ही प्रमाण मानती है। वैयावृत्य-सेवा। व्यय-क्षय होना, विनाश को प्राप्त होना। व्यवच्छेद-छेदन।