________________
924
श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध
भगवान ऋषभदेव-वर्तमान कालचक्र के प्रथम तीर्थंकर (अवतार पुरुष)। भगवान महावीर-श्रमण-जैन-संस्कृति के 24वें तीर्थंकर (अवतार)। .
भय संज्ञा-किसी भयंकर वस्तु को देखकर या किसी अज्ञात अनिष्ट की कल्पना से मन में उत्पन्न होने वाले डर या भय का आभास होना।
भरत-भगवान ऋषभदेव का ज्येष्ठ पुत्र और भरत-क्षेत्र का प्रथम चक्रवर्ती राजा।
भव्य-जिस आत्मा में मोक्ष प्राप्त करने की योग्यता है। भोक्तृत्व-अपने कृत कर्म का फल भोगना। भौतिक-सांसारिक। यति-साधु।
याज्ञिक हिंसा-यज्ञ की बलिवेदी पर की जाने वाली पशुओं या मनुष्यों की हिंसा।
युगपत्-एक साथ।
योग-मन-वचन और काया (शरीर) की प्रवृत्ति या साधना की एक प्रक्रिया या चित्त की वृत्तियों का निरोध करके समाधिस्थ होना।
योजन-चार कोस, अर्थात् आठ मील अथवा लगभग तेरह किलोमीटर की लम्बाई।
योनि-जहां जीव जन्म ग्रहण करता है।
योनिपद-प्रज्ञापना सूत्र का वह विभाग जिसमें योनि-उत्पत्ति-स्थानों का वर्णन किया है।
रजोहरण-जीवों की यत्ना एवं मकान आदि को साफ करने के लिए रखा जाने वाला ऊन का गुच्छक, यह साधु की साधुता का चिह्न भी है।
रत्न-त्रय-सम्यक् ज्ञान, सम्यग् दर्शन और सम्यक् चारित्र। रम्यमान-रमण करने वाला। रसज-खाद्य पदार्थों में रस के विकृत होने से उत्पन्न होने वाले प्राणी। ..