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________________ ६. सत्यप्रवादपूर्व-यह वचनगुप्ति, वाक्संस्कार के कारण वचन प्रयोग, दस प्रकार का सत्य, 12 प्रकार की व्यवहार भाषा, दस प्रकार के असत्य और दस प्रकार की मिश्र भाषा का वर्णन करता है। असत्य और मिश्र इन दोनों भाषाओं से गुप्ति और सत्य तथा व्यवहार भाषा में समिति का प्रयोग करना चाहिए। अभ्याख्यान, कलह, पैशुन्य, मौखर्य, रति, अरति, उपधि, निकृति, अप्रणति, मोष, सम्यग्दर्शन तथा मिथ्यादर्शन वचन के भेद से भाषा 12 प्रकार की है। किसी पर झूठा कलंक चढ़ाना अभ्याख्यान, क्लेश करना कलह, पीछे से दोष प्रकट करने को या सकषाय भेद नीति वर्तने को पैशुन्य, धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष से रहित वचन को मौखर्य या अबद्धप्रलापवचन, विषयानुरागजनक वचन रति, दूसरे को हैरान परेशान करने वाले वचन को या आर्तध्यानजनक वचन को अरति, ममत्व-आसक्ति-परिग्रह रक्षण-संग्रह करने वाले वचन उपधि, जिस वचन से दूसरे को माया में फंसाया जाता है, या दूसरे की आंख में धूल झोंक कर अथवा बुद्धि विवेक को शून्य करके ठगा जाता है, वह निकृति, जिंस वचन से संयम-तप की बात सुनकर भी गुणीजनों के समक्ष नहीं झुकता वह अप्रणति, जिस वचन से दूसरा चौर्यकर्म में प्रवृत्त हो जाए, उसे मोष, सन्मार्ग की देशना देने वाले वचन को सम्यग्दर्शन वचन, कुमार्ग में प्रवृत्त कराने वाले वचन को मिथ्यादर्शन वचन कहते हैं। अर्थात् जो सत्य वचन के बाधक हैं, सावध भाषा है वह हेय है। सत्य और व्यवहार ये दो भाषाएं उपादेय हैं। इस प्रकार अन्य-अन्य जो भी सत्यांश हैं उनका मूल स्रोत यही पूर्व है। ७. आत्मप्रवाद पूर्व-इसमें आत्मा का स्वरूप बताया है। आत्मा के अनेक पर्यायवाची शब्द हैं, उनके अर्थों से भी आत्म-स्वरूप को जानने में सहूलियत रहती है जैसे कि १. जीव-द्रव्यप्राण 10 होते हैं, उनसे जो जीया, जीवित है और जीवित रहेगा, निश्चय नय से अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्तसुख और अनन्तशक्ति, इंन प्राणों से जीने वाले सिद्ध भगवन्त ही हैं, शेष संसारी जीव, दस प्राणों में जितने प्राण जिस में पाए जाते हैं, उनसे जीने वाले को जीव कहते हैं। २. कर्ता-शुभ-अशुभ कार्य करता है इसलिए उसे कर्ता भी कहते हैं। ३. वक्ता-सत्य-असत्य, योग्य-अयोग्य वचन बोलता है अत: वह वक्ता भी है। ४. प्राणी-इसमें दस प्राण पाए जाते हैं इसलिए प्राणी कहलाता है। ५. भोक्ता-चार गति में पुण्य-पाप का फल भोगता है अतः वह भोक्ता भी है। ६. पुद्गल-नाना प्रकार के शरीरों के द्वारा पुद्गलों का ग्रहण करता है, पूर्ण करता है, उन्हें गलाता है इसलिए उसे पुद्गल भी कहते हैं। ७. वेद-सुख-दु:ख के वेदन करने से या जानने से इसे वेद भी कहते हैं। *72*
SR No.002205
Book TitleNandi Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherBhagwan Mahavir Meditation and Research Center
Publication Year2004
Total Pages546
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nandisutra
File Size12 MB
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