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________________ पूर्वगत ज्ञान क्यों कहते हैं ? ___ अंग सूत्रों की रचना करने से पहले गणधरों को जो ज्ञान होता है, वह पूर्वगतज्ञान कहलाता है। पुराणों में एक रूपक है-"सबसे पहले जब आकाश से गंगा उतरी तो उसे पहले शिवशंकर ने अपनी जटाओं में अवरुद्ध किया और कुछ समय बाद उसे बाहर प्रवाहित किया।" इस उक्ति में सच्चाई कहां तक है, इसकी गवेषणा का हमारा उद्देश्य नहीं है। हां, जब तीर्थंकर भगवान् देशना-प्रवचन करते हैं, तब वह ज्ञानगंगा तीर्थंकर के मुख से प्रवाहित होती है तो उसे गणधर पहले अपने मस्तिष्क में धारण करते हैं। जब मस्तिष्क-कुण्ड भर जाता है, तब उसे बारह अंगों में विभाजित करके प्रवाहित करते हैं, अर्थात् सूत्ररूप में 12 अंगों की रचना गणधर करते हैं। जिनको दीक्षा लेते ही पूर्वो का ज्ञान हो जाता है वे ही गणधर बनते हैं, शेष दीक्षित मुनिसत्तम, गणधरों से आचारांग आदि अंग का अध्ययन करते हैं तथा दृष्टिवाद का भी। इसी कारण पूर्वगत संज्ञा दी गई है। पूर्वो में क्या-क्या विषय हैं ? १. उत्पादपूर्व में जीव, काल और पुद्गल आदि द्रव्य के उत्पाद, व्यय और ध्रुवत्व का विशद वर्णन है, 'सद्रव्यलक्षणं, सत् क्या है, उसका उत्तर दिया है-उत्पाद-व्ययध्रौव्ययुक्तं सत् अर्थात् जिसमें ये तीनों हों, वह सत् कहलाता है, और जो सत् है, वही द्रव्य है। त्रिपदी का ज्ञान होने से ही पूर्वो का ज्ञान होता है। इस पूर्व में उक्त तीनों का विस्तृत वर्णन २. अग्रायणीयपूर्व-इसमें 700 सुनय, और 700 दुर्नय, पंचास्तिकाय; षड्द्रव्य एवं नवपदार्थ, इनका विस्तार से वर्णन किया है। ३. वीर्यानुप्रवादपूर्व-इसमें आत्मवीर्य, परवीर्य, उभयवीर्य, बालवीर्य, पण्डितवीर्य, बालपण्डितवीर्य, क्षेत्रवीर्य, भववीर्य और तपवीर्य का विशद वर्णन है। ४. अस्तिनास्तिप्रवादपूर्व-इसमें जीव और अजीव के अस्तित्व तथा नास्तित्व धर्म का वर्णन है, जैसे जीव स्वद्रव्य, स्वक्षेत्र, स्वकाल और स्व-भाव की अपेक्षा अस्तित्व रूप है। और वही जीव परद्रव्य, परक्षेत्र, परकाल और परभाव की अपेक्षा से नास्तिरूप है। इसी प्रकार अजीव के विषय को भी जानना चाहिए। ५. ज्ञानप्रवादपूर्व-पांच ज्ञान, तीन अज्ञान का इसमें स्पष्टतया वर्णन है। द्रव्यार्थिक नय और पर्यायार्थिक नय की अपेक्षा अनादि अनन्त, अनादि सान्त, सादि अनन्त और सादि सान्त विकल्पों का तथा पांच ज्ञान का वर्णन करने वाला यही पूर्व है, क्योंकि इसका मुख्य विषय ज्ञान है। 1. तत्त्वार्थ सूत्र पंचम अध्ययन। *71*
SR No.002205
Book TitleNandi Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherBhagwan Mahavir Meditation and Research Center
Publication Year2004
Total Pages546
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nandisutra
File Size12 MB
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