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अन्तर्गत उपर्युक्त दोनों ग्रंथों में पढमानियोग' पाठ दिया है, जब कि नन्दीसूत्रं में अनुयोग' पाठ दिया है, फिर आगे उसके दो भेद किए हैं, मूल पढमानुयोग और गण्डिकानुयोग। दृष्टिवाद के अन्तर्गत 22 सूत्रों का कोई नामोल्लेख नहीं है। धवला की प्रस्तावना में नन्दीसूत्रगत 22 सूत्रावलियों का नामोल्लेख अवश्य किया है, किन्तु धवला में सूत्र के 88 भेदों का नामोल्लेख अवश्य किया है। दिगम्बर परम्परा में चूलिका के पांच भेद किए हैं, जैसे कि
१. जलगता-जल में गमन, जलस्तम्भन आदि के कारणभूत मंत्र-तंत्र और तपश्चर्यारूप अतिशय आदि का वर्णन है।
२. स्थलगता-पृथ्वी के भीतर गमन करने के कारण भूत मंत्र-तंत्रों तथा तपश्चर्या और वास्तुविद्या भूमि सम्बन्धी दूसरे शुभाशुभ कारणों का वर्णन है।
३. मायागता-इन्द्रजाल मेस्मोरिज्म के कारण भूत का वर्णन है।
४. रूपगता-इसमें सिंह, घोड़ा, हरिण आदि के रूप धारिणी विद्याओं के कारणीभूत. मंत्र-तंत्र, तपश्चरण, चित्रकर्म, काष्ठ कर्म, लेप्यकर्म, लेनकर्म आदि के लक्षणों का वर्णन
है।
५. आकाशगता-आकाश में गमन करने के जंघाचरण तथा विद्याचरण लब्धि प्राप्त करने के साधन बताए हैं। __जब कि नन्दीसूत्र में आदि के चार पूर्वो की चूलिकाएं बताई हैं, उन्हीं को दृष्टिवाद के पांचवें अधिकार में निहित किया है। चूलिकाएं पूर्वो से न सर्वथा अभिन्न हैं और न सर्वथा भिन्न ही हैं। इसी कारण सूत्रकार ने उनका स्थान पांचवां रखा है।
दिगम्बर परम्परा में अवधिज्ञान के तीन भेद किए हैं, जैसे कि-देशावधि, सर्वावधि और परमावधि। इनमें पहला भेद चारों गतियों में पाया जाता है, जैसे असंयत, संयत तथा संयतासंयत में, किन्तु पिछले दो भेद अप्रतिपाति होने से केवल चरमशरीरी संयत में ही पाए जाते हैं। श्वेताम्बर आम्नाय के अनुसार प्रस्तुत सूत्र में अवधिज्ञान सविस्तार वर्णित है।
दिगम्बर परम्परा में ऋजुमति मनःपर्याय के तीन भेद किए हैं, जैसे कि ऋजुमनोगतार्थ विषयक, ऋजुवचनगतार्थ विषयक और ऋजुकायगतार्थ विषयक। परकीय मनोगत होने पर भी जो सरलता से मन, वचन, काय के द्वारा किए गए संकल्प को विषय करने वाले को ऋजुमति ज्ञान कहते हैं। विपुलगति मन:पर्याय ज्ञान के 6 भेद किए हैं। तीन उपर्युक्त ऋजु के साथ और तीन कुटिल के साथ जोड़ देने से 6 भेद बन जाते हैं। जिसका भूतकाल में चिन्तन किया गया हो, जिसका अनागत काल में चिन्तन किया जाएगा और वर्तमान में आधा चिन्तन किया है, उसे जानने वाला विपुलमतिमनःपर्याय ज्ञान कहलाता है।
1. देखो गोम्मटसार गा. 438-439
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