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अनेकान्तवाद ही एक ऐसा विशुद्ध एवं गुणग्राही है, जो कि हंस की तरह सत्यांश का समन्वय करने वाला है, असत्य का तो समन्वय सत्य के साथ तीन काल में भी नहीं हो सकता। अनेकान्तवाद जैन दर्शन की आत्मा है, सम्यग् एकान्तवाद उसके स्वस्थ अंग हैं। यह सभी दर्शनों का सुधारक, शिक्षक, गुरु, हितैषी एवं रक्षक है। जैसे परमात्मा, परम दयालु होने से लोगहियाणं का विशेषण अरिहंत व सिद्ध भगवन्त से जोड़ा है, वैसे ही अनेकान्तवाद भी सर्वोदय चाहने वाला सिद्धान्त है । मिथ्यादृष्टि इसकी बुराई करते हैं, इसका अस्तित्व मिटाने के लिए भरसक प्रयत्न करते हैं फिर भी वह अनेकान्तवाद समन्वय के बल से उन्हीं को भ्रातृत्व व मैत्रीभाव के सूत्र से बांधकर पारस्परिक वैमनस्य को मिटा देता है। विश्व में शान्ति स्थापन करने वाला यदि कोई सशक्त सूत्र है तो वह अनेकान्तवाद ही है । अनेकान्तवाद चक्रवर्ती सम्राट् है और एकान्तवादी सब उसके अधीन में रहने वाले नरेश हैं। दृष्टिवाद की क्रमिक व्याख्या
दृष्टिवाद एक दार्शनिक अंग है। उसका उपक्रम निम्न प्रकार से वर्णित है
१. आनुपूर्वी - इसके तीन भेद हैं- पूर्वानुपूर्वी, पच्छानुपूर्वी और यथातथानुपूर्वी । इनमें से यदि क्रमशः गणना की जाए, तो दृष्टिवाद अंग 12वां सिद्ध होता है। यदि पच्छानुपूर्वी से गणना की जाए, तो दृष्टिवाद पहला ही अंग है । यथातथानुपूर्वी का अर्थ है - जैसे भी गणना की जाए, वैसे ही यहां दृष्टिवाद' से प्रयोजन है, अन्य अंगों से नहीं।
२. नाम- - इसमें अनेक दृष्टियों और अनेक दर्शनों का सविस्तार वर्णन है, इसलिए इसका जो दृष्टिवाद नाम है, वह सार्थक एवं गुणसंपन्न है।
३. प्रमाण- दृष्टिवाद में अक्षर, पद, प्रतिपत्ति एवं अनुयोग आदि संख्यात प्रमाण हैं और अर्थ की अपेक्षा अनन्त प्रमाण हैं।
४. वक्तव्यता- दृष्टिवाद में स्वसमय, परसमय तथा उभयसमय की वक्तव्यता है।
५. अर्थाधिकार - इसमें 363 मतों तथा अनेकान्तवाद का मुख्य विषय है। कहीं विषय वर्णन, कहीं खण्डन तथा कहीं समन्वय का उल्लेख है । दृष्टिवाद के मुख्य पांच अधिकार हैं, जैसे कि परिकर्म, सूत्र, प्रथमानुयोग, पूर्वगत और चूलिका । यह क्रम दिगंबर परम्परा के अनुसार है, जब कि नन्दीसूत्र में पूर्वगत का तीसरा स्थान रखा गया है और अनुयोग का चौथा
स्थान ।
परिकर्म के भेद दिगंबर परम्परा में पांच किए हैं, जैसे कि चन्दपण्णत्ति, सूर्यपण्णत्ति, जम्बूद्वीप पण्णत्ति, द्वीपसागरपण्णत्ति और विवाहपण्णत्ति । जब कि नन्दीसूत्र में सिद्धश्रेणिका परिकर्म आदि मूल सात भेद किए गए हैं और उत्तर 83 भेद गिनाए हैं।
· धवला और गोम्मटसार में अनुयोग के स्थान पर अनियोग पाठ मिलता है । दृष्टिवाद के
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