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तक अकर्त्ता ही रहेगा, जैसे सत् असत् नहीं हो सकता, वैसे ही असत् सत् नहीं हो सकता। इसी प्रकार उनकी आत्मा के विषय में ऐसी धारणा बनी हुई है।
कुछ दार्शनिक आत्मा को अभोक्ता मानते हैं, उनका अभिमत है कि आत्मा स्वतन्त्र द्रव्य है, वह पर द्रव्य का भोक्ता कदाचित् भी नहीं हो सकता, जैसे पुद्गल का भोक्ता आकाश नहीं हो सकता, वैसे ही आत्मा भी आकाश की तरह अमूर्त है, वह अमूर्त होने से अभोक्ता है।
कुछ विचारकों का अभिमत है कि आत्मा निर्गुण ही है अर्थात् त्रिगुणातीत है। त्रिगुण प्रकृति के हैं, पुरुष के नहीं। यदि आत्मा को निर्गुणी न मानें तो वह कभी भी त्रिगुणातीत नहीं
बन सकता।
किन्हीं का कहना है-आत्मा, अणु प्रमाण ही है। कोई दीपक की लौ प्रमाण मानते हैं। कोई अंगुष्ठ प्रमाण मानते हैं, कोई श्मामाक तण्डुल प्रमाण मानते हैं और कोई आत्मा को आकाशवत् विभुव्यापक मानते हैं।
किन्हीं की मान्यता है कि जीव नास्तिस्वरूप ही है । किन्हीं की मान्यतानुसार जीव अस्तिस्वरूप है। ऐसी भिन्न-भिन्न मान्यताएं हैं।
चार्वाक दर्शन पृथ्वी, जल, तेज, वायु तथा आकाश इन पांच भूतों के समुदायरूप से जीव की उत्पत्ति मानता है । जीव न कहीं से आया है और न कहीं जाने वाला है, समुदाय से उत्पन्न होता है और उनके वियुक्त होने से नष्ट हो जाता है।
किन्हीं की मान्यता है कि जीव चेतना रहित है। वे जीव का अस्तित्व तो मानते हैं परन्तु चेतनावान् वह पुद्गलों से ही होता है, जब उसे शरीर, इन्द्रिय, मन आदि पुद्गलों का उचित योग मिलता है, तब वह चेतनवान बनता है, वस्तुतः आत्मा स्वयं चेतन रहित है।
किन्हीं की धारणा है-आत्मा और ज्ञान ये दो पदार्थ हैं, इनमें समवाय से आधाराधेय सम्बन्ध है - ज्ञानाधिकरणमात्मा ।
किन्हीं का मत है-आत्मा कूटस्थ नित्य (एकान्तनित्य) है और किन्हीं का कहना है कि आत्मा क्षणिक होने से एकान्त अनित्य है । इसी प्रकार त्रैराशिकवाद, नियतिवाद, विज्ञानाद्वैतवाद, शब्दब्रह्मवाद, प्रधानवाद ( प्रकृतिवाद, ईश्वरवाद, स्वभाववाद, यदृच्छवाद, भाग्यवाद, पुरुषार्थवाद, पुरुषाद्वैतवाद, द्रव्यवाद, पुरुषवाद इत्यादि पर - समय के मूल भेद चार होते हुए भी 363 दर्शन हैं, वे सब एकान्तवादी हैं, उनका अनेकान्तवाद के साथ कैसे समन्वय हो सकता है, उसका उपाय भी दृष्टिवाद में वर्णित है। जो स्वतंत्ररूपेण स्वसमय है उसका, जो पर समय है, उसका और जो समन्वयात्मक है इन सब का पूर्णतया विवेचन दृष्टिवाद में मिलता है।
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