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________________ मल्लिनाथ जी के पूर्व भवं का वर्णन करते हुए लिखा है- महाबल कुमार आदि सात मित्रों मुनिवृत्ति ग्रहण की, 11 अंगों का श्रुतज्ञान प्राप्त करके अनुत्तर विमान में देवत्व के रूप में उत्पन्न हुए। बाईसवें तीर्थंकर अरिष्टनेमि के युग में गौतमकुमार आदि दस मुनिवर 11 अंगों काही श्रुतज्ञान प्राप्त करके अन्तकृत केवली हुए । अंतगड सूत्र वर्ग पहला । ऋषभदेव भगवान् के 84 हजार साधुओं में 4750 मुनिवर दृष्टिवाद के वेत्ता हुए और शेष मुनि 11 अंग सूत्रों के ज्ञानी हुए, ऐसा कल्पसूत्र में स्पष्ट उल्लेख है। जालिकुमार आदि दस मुनिवर अरिष्टनेमी के शिष्य हुए, उन्होंने द्वादशांग गणिपिटक का श्रुतज्ञान प्राप्त किया और अन्तकृत केवली हुए। ऐसा स्पष्टोल्लेख अंतगड सूत्र के चौथे वर्ग में है। ग्यारह अंग सूत्रों का श्रुतज्ञान पूर्वों में समाविष्ट हो जाता है और पूर्वों का श्रुतज्ञान दृष्टिवाद में अन्तर्भूत हो जाता है, क्योंकि छोटी चीज बड़ी में सन्निविष्ट हो जाती है । दृष्टिवाद के पांच अध्ययन हैं, उनमें पूर्वगत ज्ञान एक अध्ययन है, जिसमें 14 पूर्वों का ज्ञान समाविष्ट हो जाता है। जिस ज्ञान तपस्वी का, जितना श्रुतज्ञानावणीय कर्म का क्षयोपशम होता है, वह तदनुसार ही श्रुतज्ञान की आराधना कर सकता है। तीर्थंकर के सभी गणधर सम्पूर्ण दृष्टिवाद के अध्येता होते हैं, जबकि शेष मुनिवरों के विषय में विकल्प है। अंग सूत्रों की अपेक्षा दृष्टिवाद उत्तमांग के स्तर पर है। वह अपने आप में इतना महान् है, जिसका थाह श्रुतकेवली भी नहीं पा सके। फिर भी दृष्टिवाद में श्रुतज्ञान की पूर्णता नहीं होने पाती । अतः श्रुतज्ञान दृष्टिवाद से भी महान् है। श्रुतज्ञान की अपेक्षा मतिज्ञान अधिक महान् है, क्योंकि श्रुत मतिपूर्वक होता है, न कि श्रुतपूर्विकामति होती है। आगमों में जहां कहीं ज्ञान की आराधना का जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट का प्रसंग आया है, वह श्रुत की अपेक्षा से समझना चाहिए। सिर्फ आठ प्रवचन माता का ज्ञान होना जघन्य आराधना है। चौदह पूर्वों का ज्ञान हो जाना मध्यम आराधना है । सम्पूर्ण दृष्टिवाद का ज्ञान हो जाना उत्कृष्ट आराधना है। उत्कृष्ट श्रुतज्ञान का आराधक उसी भव में मोक्ष प्राप्त करता है। जिसका श्रुतज्ञान सम्पूर्ण दृष्टिवाद तक विकसित हो गया है, वह कभी भी प्रतिपाति नहीं होता । इस अवसर्पिणी काल में अलग-अलग समय में चौबीस तीर्थंकर हुए हैं, उनमें सर्वप्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव हुए हैं और चौबीसवें तीर्थंकर भगवान् महावीर हुए हैं। इन दोनों का परस्पर अंतर एक कोटा - कोटि सागरोपम का था। सभी तीर्थंकरों के शासनकाल में नियमेन द्वादशांग गणिपिटक होता है। एक तीर्थंकर के जितने गण होते हैं, उतने ही गणधर होते हैं, तथा प्रत्येक अंग सूत्र की वाचनाएं भी उतनी ही होती हैं, किन्तु भगवान् महावीर के ग्यारह गणधर थे, गण नौ थे और वाचनाएं भी नौ हुईं। आठवें, नौवें अकंपित और अचलभ्राता इनकी वाचनाएं 1. उसभसिरिस्स भगवओ चरिमस्स य महावीरवद्धमाणस्स एगा सागरोवमकोडाकोडी आबाहाए अन्तरे पण्णत्ते । - श्री समवायांग सूत्र, 173 । 59
SR No.002205
Book TitleNandi Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherBhagwan Mahavir Meditation and Research Center
Publication Year2004
Total Pages546
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nandisutra
File Size12 MB
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