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जिसमें पृथक् विवेचन किया गया हो, तदनुसार सर्वथा विभिन्न उन मान्यताओं का समन्वय कैसे हो सकता है? वस्तुतः इसकी कुंजी दृष्टिवाद नामक बारहवें अंग सूत्र में निहित है।
किन्हीं की मान्यता है कि द्वादशांग गणिपिटक को भगवान् महवीर ने प्रचलित किया है, उनसे पहले जो श्रुतज्ञान था, वह 14 पूर्वो में विभक्त था। ग्यारह अंग और दृष्टिवाद, इनका उल्लेख तेवीस तीर्थंकरों के शासनकाल में नहीं मिलता। ऐसा कथन उन्हीं का हो सकता है, जो आगमों के सम्यग् अध्येता नहीं हैं। नन्दी में तथा समवायांग सूत्र में द्वादशांग गणिपिटक को ध्रुव, नित्य, शाश्वत और अवस्थित, ऐसे स्पष्ट लिखा है। इस कथन की पुष्टि निम्नलिखित पाठ से होती है जैसे कि___ "एएसुणं भंते ! तेवीसाए जिणंतरेसु कस्स कहिं कालियसुयस्स वोच्छेदे पण्णत्ते? गोयमा ! एएसुणं तेवीसाए जिणंतरेसु पुरिमपच्छिम एसु अट्ठसु अट्ठसु जिणंतरेसु एत्थ *णं कालियसुयस्स वोच्छेदे पण्णत्ते। सव्वत्थ वि णं वोच्छिन्ने दिट्ठिवाए।". .
- -भ.श. 20, उ.8 सभी तीर्थंकरों के शासनकाल में दृष्टिवाद का व्यवच्छेद हुआ है। इस पाठ से यह स्पष्ट सिद्ध है कि दृष्टिवाद सभी तीर्थंकरों के शासनकाल में होता है। भगवान् महावीर के शासन प्रवृत्त करने से पहले ही पार्श्वनाथजी के शासन में दृष्टिवाद का व्यवच्छेद हो गया था, सिर्फ ग्यारह अंगश्रुत ही शेष रह गए थे। पूर्वधर कोई भी मुनिवर उस समय में नहीं था, ऐसा इस पाठ से ध्वनित होता है। अब लीजिए ग्यारह अंग श्रुत की प्राचीनता के प्रमाण
जम्बूदीवे णं दीवे इमीसे णं ओसप्पिणीए तेवीसं तित्थयरा पुव्वभवे एकारसंगिणो होत्था, तं जहा-अजियसंभवअभिणंदणसुमई जाव पासो वद्धमाणो या उसभे णं अरहा कोसलिए चोद्दसपुव्वी होत्था।
समवयांग सूत्र, समघाय 23 ऋषभदेव के अतिरिक्त 23 तीर्थंकरों ने पूर्वभव में ग्यारह अंग सूत्रों का श्रुतज्ञान ही प्राप्त किया है, किन्तु ऋषभदेवजी के जीव ने पूर्वभव में ग्यारह अंगों के अतिरिक्त 14 पूर्षों का श्रुतज्ञान भी प्राप्त किया। इसकी पुष्टि के लिए अन्य प्रमाण भी है, जैसे कि-पढमस्स बारसंगं, सेसाणिक्कारसंगसुयलम्भो।
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आ.म.अ., 1 खंड इस पाठ से यही सिद्ध होता है जोकि ऊपर लिखा जा चुका है। इन सब प्रमाणों से उक्त मान्यता निर्मूल हो जाती है। प्रत्येक तीर्थंकर के शासन में जो श्रुतज्ञान के आराधक होते हैं, उनमें कोई ग्यारह अंगश्रुत के, कोई पूर्वो के पाठी होते हैं और कोई सम्पूर्ण दृष्टिवाद के वेत्ता होते हैं। इनमें सबसे अल्पसंख्यक सम्पूर्ण दृष्टिवाद के वेत्ता होते हैं। पूर्वां' के अध्येता अधिक और सबसे अधिक संख्या वाले ग्यारह अंगों के श्रुतज्ञानी होते हैं।
महाविदेह क्षेत्र की अपेक्षा से द्वादशांग गणिपिटक अनादि अनन्त है, किन्तु भरत और ऐरावत क्षेत्र की अपेक्षा से सादि-सान्त है। ज्ञाताधर्मकथा नामक सूत्र के आठवें अध्ययन में
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