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श्वेताम्बर मत की स्थापना हुई, ऐसा स्पष्टोल्लेख 'दर्शनसार' गा० 11 में पाया जाता है। इस प्रकार दोनों उद्धरणों से परस्पर दोनों परम्पराओं का अन्तर कुल तीन वर्ष का पाया जाता है। इन दोनों प्रमाणों से सिद्ध होता है कि वीर निर्वाण की सातवीं शती के प्रारम्भ में ही श्रीसंघ दो भागों में विभक्त हो गया था। अतः मन ऐसी गवाही नहीं देता कि देववाचक तक एक ही शाखा, एक ही परम्परा, एक ही समाचारी चल रही हो। अपितु जो आचार भेद से स्थविरकल्पी
और जिनकल्पी के रूप में दो परम्पराएं सदा काल से चली आ रही थीं, वे ही विचारभेद से क्रमशः श्वेताम्बर और दिगम्बर के रूप में बदलकर दो सम्प्रदाय बन गईं। आगम विच्छिन्न न हों, इस दृष्टि से श्वेताम्बरों ने आगमों को नियुक्ति, चूर्णि, वृत्ति तथा भाष्य आदि से पुनरुज्जीवित कर दिया तथा अन्य-अन्य ग्रन्थों का निर्माण करके अपनी परम्परा को आगमों पर आधारित रखते हुए अक्षुण्ण बनाए रक्खा, किन्तु दिगम्बरों ने यह मान्यता स्थापित कर दी कि आगमों का श्रुतज्ञान सर्वथा लुप्त हो गया है। तत्पश्चात् पुष्पदन्त और भूतबली ने षट्खण्डागम की रचना की, फिर धरसेन, वीरसेन आदि आचार्यों ने धवला, जयधवला और महाधवला शौरसेनी भाषा में बृहद्वृत्तियां लिखीं। आचार्य कुन्दकुन्द ने प्रवचनसार, समयसार आदि अनेक ग्रन्थ लिखे। विद्यानन्दी, अकलंकदेव और स्वामी समन्तभद्र आदि अनेक आचार्य हुए हैं, जिन्होंने अनेक ग्रन्थों की रचना की।
तत्कालीन उपलब्ध श्वेताम्बर आगमों को जिनमें वस्त्र, पात्र, स्त्रीमुक्ति, केवलिभुक्ति का वर्णन है, दिगम्बरों ने उन्हें मानने से इन्कार कर दिया। वे केवल उत्तराध्ययन सूत्र को अनेक सदियों तकं मानते चले आ रहे थे। अब कुछ शताब्दियों से उसे भी मानने से इन्कार कर दिया है! आगे चलकर उनके भी तीन मत स्थापित हो गए-वीसपंथी, तेरापंथी और तारणपंथी। किन्तु वास्तव में देखा जाए तो पुष्पदन्त और भूतबलि ने तथा आचार्य कुन्दकुन्द ने भी आगमश्रुत के आधार पर ही ग्रन्थों की रचना की, न कि अपने ही अनुभव के आधार पर।
श्वेताम्बरों में भी मुख्यतया तीन मत स्थापित हुए-1. मन्दिर मार्गी 2. साधु मार्गी और 3. तेरापंथी। इनमें से साधुमार्गी अपने आपको पीछे से स्थानकवासी कहलाने लगे। ग्यारह अंग और दृष्टिवाद की प्राचीनता
दृष्टि का अर्थ होता है, विचारधारा-मान्यता। विश्व में अनेक दर्शन हैं, उन सब का अन्तर्भाव सम्यग्दर्शन, मिथ्यादर्शन और मिश्रदर्शन में ही हो जाता है। जिनकी दृष्टि सम्यक् है, उन्हें सम्यग्दृष्टि कहते हैं। जिनकी दृष्टि-मान्यता मिथ्या है, उन्हें मिथ्यादृष्टि और जिनकी दृष्टि न सत्य में अनुरक्त है, न असत्य से विरक्त है, ऐसी मिली-जुली विचारधारा को मिश्रदृष्टि कहते हैं। वाद का अर्थ होता है-सिद्धान्त या कथन करना। सम्यग्वाद को दृष्टिवाद कहते हैं। दिट्ठिवाए' का रूप संस्कृत में दृष्टिपात भी बनता है जिसका अर्थ होता है-जीवादि नव पदार्थों में अनेक दृष्टिकोण अर्थात् परस्पर विरुद्ध एकान्त-वादियों की मान्यताओं का
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