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आर्य नागहस्ती जी वाचकवंशज हुए हैं, उनके लिए आचार्य शब्द का प्रयोग नहीं किया, जैसे कि “वड्ढउ वायगवंसो जसवंसो अज्जनागहत्थीण' । रेवतिनक्षत्र ने उत्तम वाचकपद को प्राप्त किया। ब्रह्मदीपिक शाखा के परम्परागत सिंह नामा मुनिवर ने भी उत्तम वाचकपद को प्राप्त किया। जिन्होंने वाचकत्व को प्राप्त किया, उन वाचक नागार्जुन को भी देववाचक जी ने वन्दन किया है।' इन उद्धरणों से प्रतीत होता है कि देववाचक जी ने महती श्रद्धा से पूर्वोक्त युगप्रधान वाचकों की स्तुति और उन्हें वन्दना की है। वे आचार्य नहीं थे, बल्कि वाचक हुए हैं। वाचक उपाध्याय को कहते हैं, जैसे कि वाचक उमास्वाति जी, वाच उपाध्याय यशोविजय जी । अतः वाचक शब्द उपाध्याय के लिए निर्धारित है।
कल्पसूत्र की स्थविरावली पर यदि हम दृष्टिपात करते हैं तो आर्य वज्रसेन जी 14वें पट्टधर के मुख्यतया चार शिष्य हुए हैं- 1 नाइल, 2 पोमिल, 3 जयन्त और 4 तापस इनकी चार शाखाएं निकलीं। देववाचक जी ने भूतदिन्न आचार्य का परिचय देते हुए कहा- 'नाइल कुल वंस नन्दिकरे' इससे यह भी सिद्ध होता है कि यह गुर्वावली नहीं है। अपितु जो युगप्रधान आचार्य या अनुयोगाचार्य किसी भी शाखा या परम्परा में हुए हैं, उनकी स्तुति मंगलाचरण के रूप में की है।
जिन महानुभावों का नाम और उनका परिचय देववाचक जी की स्मृति में नहीं था, उनके लिए उन्होंने कहा है
“जे अन्ने भगवन्ते कालियसुय आणुओगिए धीरे, ते पणमिऊण सिरसा " जो युगप्रधान कालिक श्रुतधर तथा अनुयोगाचार्य हुए हैं, उन्हें भी मस्तक झुकाकर नमस्कार करके नाणस्स परूवणं वोच्छं कहकर नन्दीसूत्र के लिखने का प्रयोजन बतलाया है। इससे भी यही सिद्ध होता है कि सभी अनुयोगाचार्य मुनिवर चाहे वे किसी भी शाखा में हुए हैं, उनको वन्दन किया है।
कल्पसूत्र में जो स्थविरावली है, वह वस्तुतः गुर्वावली ही है, उसमें पट्टधर आचार्यों के नामोल्लेख भी हुए हैं। किन्तु नन्दीसूत्र में युगप्रधान, विशिष्ट विद्वान एवं श्रुतधर आचार्य तथा अनुयोगाचार्यों के पुनीत नाम्नों का ही उल्लेख है, अन्य मुनियों का नहीं।
स्तुतिनन्दी में 18-19-31-32-48, ये गाथाएं न चूर्णि में हैं, न मलयगिरिवृत्ति में और न हरिभद्रीयवृत्ति में ही मिलती हैं, किन्तु अन्य-अन्य प्रतियों में उपलब्ध होती हैं।
जो श्रीसंघ ऋषभदेव भगवान् से लेकर एक अजस्त्र धारा में प्रवहमान था, वह वीर नि० सं० 609 में दो भागों में विभक्त हो गया, ऐसा विशेषावश्यक भाष्य में आचार्य जिनभद्र जी ने लिखा है। उस समय दिगम्बर मत की स्थापना हुई, और वीर नि० के 136 वर्ष के बाद
1. गा. 34, 2. गा. 35, 3..गा. 36, 4. गा. 40
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