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संकलन भी गणधरकृत अंगसूत्रों के आधार पर किया गया है। सूत्र को पकड़ कर चलने वाले व्यक्ति ही बिना पथभ्रष्ट हुए संसार से पार हो जाते हैं। अथवा जिस प्रकार कि सूत्र (धागे) से पिरोई हुई सुई सुरक्षित रहती है, और बिना सूत्र के खो जाती है, वैसे ही जिसने निश्चयपूर्वक सूत्रों का ज्ञान प्राप्त कर लिया, वह संसार में भटकता नहीं, प्रत्युत शीघ्र ही सिद्धत्व को प्राप्त कर लेता है। इस दृष्टि से नन्दी शास्त्र को सूत्र भी कहते हैं, क्योंकि इसमें ज्ञान का वर्णन है, ज्ञान से आत्मा प्रकाशवान होता है। जैसे भास्वर पदार्थ अन्धेरे में गुम नहीं होता वैसे ही ज्ञान हो जाने से जीव संसार-अन्धकार में गुम नहीं होता। सूत्र-सूक्तं-सुप्तं इन शब्दों का प्राकृत में सुत्त बनता है। सूत्र ज्ञान की संक्षिप्त व्याख्या ऊपर लिखी जा चुकी है। सूक्तं का अर्थ है-सुभाषित जो अरिहन्त के द्वारा प्रतिपादित अर्थ का आधार लेकर गणधरों ने व श्रुतकेवलियों ने अपने मधुर-सरस वर्णात्मक सुन्दर शब्दों में गून्था है। जिससे भव्य प्राणी जटिल शब्दाडम्बर में न पड़कर भावार्थ को शीघ्र समझ सकें। अतः आगमों को यदि सूक्तं भी कहा जाए तो अनुचित न होगा। इस दृष्टि से नन्दीसूत्र को नन्दीसूक्त भी कहा जा सकता
सुप्त के स्थान पर भी प्राकृत में सुत्त बनता है, इसका आशय है-जिस प्रकार सोए हुए व्यक्ति के आस-पास वार्तालाप करते हुए भी उसे उसका ज्ञान नहीं होता, इसी प्रकार व्याख्या, चूर्णि, नियुक्ति और भाष्य के बिना जिसके अर्थ का बोध यथार्थ रूप से नहीं होता। अतः उसे सुप्त भी कह सकते हैं। सूत्र के अतिरिक्त अन्य कोई मार्ग नहीं है, जिसमें महार्थ को गर्भित किया जा सके। जैसे बहुमूल्य रत्न में सैंकड़ों स्वर्ण मुद्राएं, हजारों रुपए, लाखों पैसे समाविष्ट हो जाते हैं, वैसे ही तीर्थंकर भगवान् के तथा श्रुतकेवली के प्रवचन; शब्द की अपेक्षा से स्वल्पमात्रा में होते हैं और अर्थ में महान्। ____ जिस मनुष्य के विषय एवं कषाय के विकार शान्त हों तथा ज्ञानावरणीय कर्म का क्षयोपशम अधिक मात्रा में हो, वही सम्यग्दृष्टि सूत्र में से महान् अर्थ निकाल सकता है। वही सुप्त सूत्र को जगाने में समर्थ हो सकता है। बीज में जैसे मूल-कन्द, स्कन्ध-शाखा, प्रशाखा, किसलय, पत्र-पुष्प, फल और रस सब कुछ विद्यमान हैं, जब उसे अनुकूल जलवायु, भूमि, समय और रक्षा के साधन मिलते है; तब उसमें छिपे हुए या सुप्त पड़े हुए सभी तत्त्व यथा समय जागृत हो जाते हैं। वैसे ही सूत्र भी बीज की तरह महत्ता को अपने में लिए हुए हैं। पुस्तकासीन, अनुपयुक्त तथा मिथ्यात्व दशा में जीव के अन्तर्गत श्रुतज्ञान सुप्त होता है। जब सच्चे गुरुदेव के मुखारविन्द से विनयी शिष्य, दत्त-चित्त से क्रमशः श्रवण-पठन, मनन-चिन्तन
और अनुप्रेक्षा करता है, तब सुप्त श्रुत जागरूक हो जाता है। द्रव्यश्रुत ही भाव श्रुत का कारण है। इसको "कारण में कार्य का उपचार" ऐसा भी कहा जा सकता है। पुनः-पुनः ज्ञान में उपयोग लगाना इसे श्रुतधर्म या स्वाध्याय धर्म भी कहते हैं। साधक को पहले श्रुतालोक से आत्मा को आलोकित करना चाहिए, तभी केवलज्ञान का सूर्य उदय हो सकता है।
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