________________
“शास्यते प्राणिनोऽनेनेति शास्त्रम्" जिसके द्वारा प्राणियों को सुशिक्षित किया जाए, , उसे शास्त्र कहते हैं।
उमास्वाति जी ने शास्त्र की व्युत्पत्ति बहुत ही सुन्दर शैली से की है। उन्होंने 'शासु अनुशिष्टौ ' और 'ङ' पालने धातु से व्युत्पत्ति की है और साथ ही उन्होंने यह भी बतलाया है कि जो संस्कृत व्याकरण के विद्वान हैं, उन्होंने भी शास्त्र शब्द की व्युत्पत्ति इसी प्रकार की है, जैसे कि मैंने की है। आगे चलकर उन्होंने शास्त्र शब्द की व्याख्या सुन्दर शैली से की है। जिन प्राणियों का चित्त राग-द्वेष से उद्धत, मलिन एवं कलुषित हो रहा है, जो धर्म से मुख हैं, जो दुःख की ज्वाला से झुलस रहे हैं, उनके चित्त को जो स्वच्छ एवं निर्मल करने में निमित्त है, धर्म में लगाने वाला है और सभी प्रकार के दुःख से रक्षा करने वाला है, उसे शास्त्र कहते हैं। उनके शब्द निम्नलिखित हैं
“शास्विति वाग्विधिविद्भिर्धातुः पापठ्यतेऽनुशिष्ट्यर्थः । त्रैङिति पालनार्थे विपश्चितः सर्वशब्दविदाम् ॥ यस्माद्रागद्वेषोद्धतचित्तान् समनुशास्ति सद्धर्मे । संत्रायते च दुःखाच्छास्त्रमिति निरुच्यते सद्भिः ॥" प्रशमरति, श्लो. 186-187
आचार्य समन्तभद्र ने शास्त्र का लक्षण बहुत ही सुन्दर • बतलाया है, जो आप्त का कहा हुआ हो, जिसका उल्लंघन कोई न कर सकता हो, जो प्रत्यक्ष और परोक्ष प्रमाण से विरुद्ध न हो, तत्व का उपदेष्टा हो, सर्व जीवों का हित करने वाला हो, और कुमार्ग का निषेधक हो; जिसमें ये छः लक्षण घटित हों, वह शास्त्र कहलाता है। उनके शब्द निम्नलिखित हैं, जैसे कि
"आप्तोपज्ञमनुलंघ्य मदृष्टेष्टविरुद्धकम् । तत्त्वोपदेशकृत-सार्वं, शास्त्रं कापथघट्टनम् ॥”
-
यह श्लोक आचार्य सिद्धसेनदिवाकर के न्यायावतार में भी गृहीत है। अतः मुमुक्षुओं को उपर्युक्त लक्षणोपेत शास्त्रों के अध्ययन व अध्यापन, आत्म-चिन्तन, धर्मकथा, हित शिक्षा सुनने, उसे धारण करने, संयम, तप और गुरु भक्ति में सदा प्रयत्नशील रहना चाहिए, क्योंकि शास्त्रीय ज्ञान धर्म-ध्यान का अवलम्बन है। शास्त्रीयज्ञान स्व- पर प्रकाशक होने से ग्राह्य एवं संग्राह्य है। सत् शिक्षा देने के कारण नन्दीसूत्र भी शास्त्र कहलाता है। शास्ता की प्रधानता से शास्त्र की प्रधानता हो जाती है।
अर्थ को सूचित करने के कारण इसे सूत्र कहते हैं। जो तीर्थंकरों के द्वारा अर्थरूप में उत्पन्न होकर गणधरों के द्वारा ग्रन्थ रूप में रचा गया है, उसे भी सूत्र कहते हैं। नन्दी-सूत्र का
46